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________________ २८२ आनन्द प्रवचन : भाग १० विनय : शिष्य के लिए बहुमूल्य आभूषण वास्तव में विनय एक ऐसा आभूषण है, जिससे शिष्य का जीवन, गुण, यश, ज्ञान आदि सब चमक उठते हैं, उसके कारण सभी गुण सुसज्जित और प्रदीप्त हो जाते हैं । विनय के बिना सभी गुण फीके और सौन्दर्यहीन लगते हैं । इसलिए उत्तराध्ययन सूत्र में बताया गया है "fare ठवेज्ज अप्पाणमिच्छंतो हियमप्पणो ।” "जो अपना आत्महित चाहता है, वह अपनी आत्मा को विनय में स्थापित कर दे।" के प्रति विनय : कैसे और किस रूप में ? गुरु शिष्य गुरु के प्रति विनय कैसे और किस रूप में करे ? यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है। इसके लिए दशवैकालिक सूत्र का 'विनयसमाधि' नाम का सारा अध्ययन प्रस्तुत है । इस पूरे अध्ययन का निष्कर्ष यह है कि विनय धर्म का मूल है । अगर धर्म को जीवन में रमाना चाहते हो और उसके विवेकपूर्वक आचरण से अपनी आत्मा को विशुद्ध बनाकर पूर्णता के गुणस्थान शिखर पर पहुँचाना चाहते हो, शास्त्र की भाषा में कहूँ तो - मोक्ष पाना चाहते हो और मोक्ष के लिए अनिवार्य कर्मक्षय करना चाहते हो, तो देव- गुरु-धर्म के प्रति विनय-भक्ति की आराधना - साधना करो । जहाँ जीवन में सच्चे माने में विनय गुण रम जाता है वहाँ आत्मा में शान्ति, समाधि और तृप्ति आ जाती है । सांसारिक विषयों की आसक्ति एवं कषायों के दलदल में वह आत्मा नहीं फँसती । परन्तु विनयसमाधि को प्राप्त करने के लिए चार प्रकार दशवैकालिक सूत्र ( अ० ६, ३, ४ ) में बताए गये हैं "चहा खलु विणय समाही भवइ । तं जहा - अणुसा सिज्जतो सुस्सूसइ, सम्मं संपडिवज्जइ, वेयमाराहइ, न य भवइ अत्तसंपग्गहिए ।" विनयसमाधि चार प्रकार की होती है, जैसे कि - ( १ ) शिष्य गुरु द्वारा अनुशासित होते समय भी उनकी बात ध्यानपूर्वक सुनता है, (२) सम्यग् प्रकार से स्वीकार करता है, गुरु के वचनानुसार आचरण करता है, (३) उनकी आराधना करता है, (४) अपनी बात को पकड़े हुए नहीं रखता - पूर्वाग्रही नहीं होता । गुरुवचनों कोही प्रमाण मानता है । इस प्रकार गुरुदेव के प्रति विनयाराधना करने से शिष्य के जीवन में चार चाँद लगते हैं, उनका जीवन अन्य सभी आवश्यक गुणों से चन्द्रमा की तरह सोलह कलाओं से खिल उठता है । इसी कारण महर्षि गौतम ने कहा 'सीसस्स सोहा विणए पवित्ति' आप भी अपने गुरु के प्रति सर्वतोभावेन विनय में प्रवृत्त होकर अपने जीवन को चमकाइए । 00 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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