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शिष्य की शोभा : विनय में प्रवृत्ति २८१ तहेव सुविणी अप्पा लोगंसि नरनारीओ ।
दीसंति सुहमेहंता इड्ढि पत्ता महायसा ॥ "लोक में जो सुविनीत आत्मा नर-नारी हैं, वे सुख-सम्पन्न, समृद्ध और महायशस्वी दिखायी देते हैं।"
गुरुजनों की विनय-भक्ति से उनका आशीर्वाद पाकर कौन शिष्य ऐसा है, जो गुणों से समृद्ध, महायशस्वी एवं सुख-सम्पन्न न हो जाता हो । चाहिए गुरुजनों के प्रति परिपूर्ण श्रद्धाभक्ति, विनय, समर्पणता एवं गुरु-आज्ञा का शीघ्र-पालन । ऐसा शिष्य किसी दुःसाध्य रोग से पीड़ित हो, तो भी गुरु-कृपा से उसका वह रोग मिट जाता है।
एक विनीत, आज्ञाकारी एवं विवेकी तथा सेवाभावी शिष्य को भीषण रोग लग गया, उनसे शरीर में कीड़े पड़ गये । शिष्य के शरीर की क्षीणता देखकर गुरु चिन्तित थे । गहराई से सोचा-यदि कहीं साँप के विष का योग मिल जाए तो रोग समूल नष्ट हो सकता है । पर यह योग मिले कैसे ? ।
एक दिन उपाश्रय में काला सर्प निकला। गुरु ने शिष्य से कहा-"जाओ, वत्स ! साँप को नाप आओ कि कितना लम्बा है ?"
शिष्य बिना किसी प्रकार का तर्क किये साँप को नापने चला । फण और पूंछ का सिरा ध्यान में लेकर साँप के निकल जाने पर पीछे वाली जमीन को नाप कर गुरु को बता दिया, पर सोचा हुआ काम नहीं बना ।
अतः गुरु ने फिर आज्ञा दी- "आयुष्मन् ! साँप के दांत गिनकर आओ।"
शिष्य तत्काल किसी आनाकानी के बगैर साँप के निकट पहुँचा। एक पैर से साँप की पूंछ दबाई, एक हाथ से फन पकड़ा और दूसरे हाथ की उंगली. उसके मुंह में डालकर सांप के दाँत गिनने की चेष्टा की। किन्तु क्रुद्ध सांप ने उसकी उंगली पर डंक मार दिया । गुरुदेव से कहते ही उन्होंने फौरन शिष्य को अपने पास बुला लिया। गुरु ने उसे सुला दिया, एक कम्बल उस पर डाल दी। ज्यों-ज्यों सर्पविष शरीर में फैलने लगा, त्यों-त्यों उसकी गर्मी से भीतर पैदा हुए कीड़े बाहर निकलते गये । सारी कम्बल पर कीड़े ही कीड़े रेंगने लगे। गुरु ने कम्बल को छाया में एक ओर झड़कवा दी, और फिर ओढ़ा दी। इस तरह दो-तीन बार में सारे कीड़े शरीर से निकल गये। शिष्य का शरीर कंचन सा हो गया। वह बिल्कुल स्वस्थ हो गया।
शिष्य के स्वस्थ होने के बाद गुरु ने उससे पूछा-वत्स ! मैंने साँप के दाँत गिनने की आज्ञा दी, तब तुम्हारे मन में मेरे प्रति क्या भाव आए ?"
शिष्य हाथ जोड़कर सविनय बोला-"गुरुदेव ! मैं तो तन-मन से आपके प्रति समर्पित हैं। यह मानता हूँ कि गुरु-आज्ञा मेरे लिए कभी अहितकर हो नहीं सकती। 'आज्ञा गुरुणामविचरणीया' मैं तो यही बात जानता हूँ।" ।
गुरु ने अन्तर् से आशीर्वाद दिया-"धन्य हो वत्स ! तेरा शीघ्र कल्याण हो ।"
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