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________________ २८० आनन्द प्रवचन : भाग १० शान्ति से रह सकें । मैं आपको वचन देता हूँ कि अब मैं विनीत होकर रहूँगा, मैं किसी को भी हैरान न करूँगा ।" यह सुनकर अम्बऋषि अपने पुत्र निम्बक को लेकर पुनः अपने गुरु आचार्य के पास आये और उनसे करबद्ध होकर सविनय प्रार्थना की- "गुरुदेव ! हमें अपने श्रीचरणों में स्थान दीजिए । अब मेरा पुत्र किसी प्रकार की दुर्विनीतता, कलह, या क्लेश नहीं करेगा । मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ ।" किन्तु इतना कहने पर भी अन्य साधुओं को विश्वास नहीं हुआ । इस पर आचार्यश्री ने सबको समझाया - "आर्यो ! एक रास्ता मुझे सूझा । ये दोनों अभी तो हमारे पास पाहुने के रूप में रहेंगे, कुछ दिन रहने के बाद अगर इनकी प्रकृति में हमने योग्य परिवर्तन देखा तो हम इन्हें रखेंगे, अन्यथा विदा कर देंगे ।" सभी साधुओं को यह बात उचित लगी। दोनों पिता-पुत्र (साधु) रहने लगे । अब निम्बक साधु पहले जैसा कटुनिम्बक नहीं रहा, वह एकदम बदल गया । आचर्य की आज्ञानुसार साधु-जीवन की मौलिक क्रियाओं का पालन करने लगा । आचार्य एवं बड़े साधुओं के प्रति सदा विनीत, सेवाभावी, नम्र, मृदु, मधुरभाषी एवं सरल बन गया। सभी साधुओं ने, यहाँ तक कि उज्जयिनी के सभी संघाटकों के साधुओं ने उसे अमृत के आम सामान लिया । वह संघ के लिए महान उपयोगी, सेवाभावी, महाविनयी बन गया । उसने दशवैकालिक सूत्र की इस गाथा को जीवन में चरितार्थ कर लिया जेण कित्ति सुयं सिग्घं नीसेसं चाभिगच्छइ । " शिष्य के जीवन में विनय आ जाने पर वह कीर्ति, शास्त्रज्ञान और शीघ्र ही निःश्रेयस को प्राप्त कर लेता है ।" विनीत शिष्य क्या पाता है ? इसीलिए महर्षि गौतम ने इस जीवनसूत्र में बताया कि शिष्य की शोभा विनय की प्रवृत्ति से है । विनय शिष्य के जीवन- प्रासाद की नींव है । उसके जीवन प्रासाद का सारा निर्माण कार्य विनयरूपी नींव पर स्थित है । अगर उसके जीवन में विनय की नींव पक्की है तो उसमें, सेवा, दया, क्षमा, सहानुभूति, श्रद्धा, भक्ति, नम्रता सरलता आदि सद्गुण स्वतः आ जायेंगे । जैसा कि प्रशमरति में कहा है- 'विनयायत्ताश्च गुणाः सर्वे' समस्त गुण विनय के अधीन हैं । विनय समस्त गुणों का शृंगार है । धर्मरत्नप्रकरण में भी बताया है विणण णरो..." जण पियत्तं लहइ भुवणे । " विनय के कारण मनुष्य संसार में लोकप्रिय बन जाता है ।" नीतिकार भी कहते हैं - 'विनयाद्याति पात्रताम्' विनय के कारण शिष्य में पात्रता आती है । विनय का माहात्म्य बताते हुए दशवेकालिक सूत्र में कहा है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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