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________________ शिष्य की शोभा : विनय में प्रवृत्ति २६७ वह स्वतः ही अपनी स्फुरणा से गुरु के उपकार भार से दबकर उनके प्रति विनय, श्रद्धा-भक्ति और सेवा-सुश्रूषा करने में प्रवृत्त हो जाये । दश वैकालिक सूत्र में विनीत शिष्य की अन्तःप्रेरणा बताई गई है जे मे गुरु सययमणुसासयंति । तेहि गुरु सययं पूययामि ॥ "गुरुदेव मुझे सतत अनुशासित करते हैं, हितशिक्षा देते हैं, (यह मेरे पर बहुत बड़ा उपकार है ।) इसी कारण से गुरु की मुझे सतत पूजा-सेवा, सत्कार, भक्ति-शुश्रूषा करनी चाहिए ।" सच्चा गुरु मनोवैज्ञानिक दृष्टि से शिष्य के साथ ऐसा व्यवहार करेगा, या इस प्रकार से उसका जीवन-निर्माण करेगा कि स्वतः उसके हृदय में गुरु के प्रति श्रद्धा-भक्ति, विनय बहुमान की भावना उमड़े। गुरु के कहने की भी जरूरत न पड़े, न समर्पण करने, प्रेरणा देने की आवश्यकता रहे। गुरु के प्रति जिस शिष्य का स्वतः चुम्बकीय आकर्षण होगा, वह गुरु के चरणों में स्वतः सर्वस्व समर्पित कर देगा । एक गुरु और शिष्य भ्रमण करते हुए एक जंगल में पहुँच गये। शिष्य बहुत चलने से अत्यन्त थक गया था, यह देखकर गुरु उपयुक्त स्थान देखकर विश्राम करने के लिए रुके । शिष्य भी गुरु की प्रिय गोद में मस्तक रखकर निद्राधीन हो गया । शिष्य जब गाढ़ निद्रा में था, तब गुरु जाग रहे थे । इतने में एक काला सर्प सर सराता हुआ शिष्य की ओर आने लगा तो गुरु ने धीरे से एक ओर खिसककर उसे रास्ता देना चाहा । पर सर्प तो एकदम निकट आ गया । गुरु उसे हाथ से रोकने लगे तो वह मनुष्यवाणी में बोला - "महात्मन् ! मुझे तुम्हारे इस शिष्य को काटना है, इसलिए रोकिए मत ।" गुरु ने सर्प से पूछा – “पर कुछ कारण तो होगा न, इसे काटने का ?" सर्प बोला - " कारण यही है कि इसने मेरा रक्त पिया था, अब मुझे इसका रक्त पीना है । इसने मुझे बहुत सताया है, अतः इससे वैर का बदला लिये बिना नहीं छोड़ेंगा । इसीलिए तो मैंने सर्प का रूप धारण किया है । आप कृपया मुझे रोके नहीं । रोकेंगे तो मैं और किसी समय आपकी अनुपस्थिति में आकर इसे काहूंगा, छोडूंगा नहीं ।" क्रुद्ध सर्प का वचन सुनकर गुरु ने सर्प को समझाया - "भाई ! अपना आत्मा ही अपना शत्रु है, दूसरा कोई नहीं । तु इसे काटेगा, तो तेरे प्रति इसके हृदय में वैर जागेगा । यह इस शरीर को छोड़कर नया धारण करेगा, फिर वैर का बदला लेगा, फिर तू भी वैरभाव को लिए हुए मरकर दूसरे जन्म में वैर का बदला देगा, उसके बाद यह लेगा । यों वैर की परम्परा बढ़ेगी, फायदा क्या होगा ? सर्प — "महात्मन् आपकी बात सच्ची है, पर मैं आप समर्थ पुरुष हैं, मैं नहीं । माफ कीजिए, मैं वैर का बदला छोडूंगा।" Jain Education International For Personal & Private Use Only इतना ज्ञानी नहीं हूँ । लिए बिना इसे नहीं www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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