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________________ २६८ आनन्द प्रवचन : भाग १० गुरु — " तो भाई ! तू इसके बदले मुझे काट ले ।" सर्प - आप जैसे पवित्र पुरुष को काटकर मैं घोर नरक में जाऊँगा ? अपराध इसने किया है, आपने नहीं । अतः मैं इसे ही काटूंगा, इसी का खून पीऊँगा ।" अन्त में, जब सर्प बहुत समझाने पर भी न समझा तो गुरुजी ने कहा"अगर मैं तुम्हें इसी का रक्त निकालकर दे दूं तो सन्तुष्ट हो जाओ न ?” न ?" सर्प बोला- “भले ऐसा कीजिए, मुझे तो इसी के गले का खून पीना है ।" गुरु ने कहा- - " अच्छा वैसा ही करूंगा। फिर तो तुम इसे कभी नहीं काटोगे सर्प ने स्वीकार किया । गुरुजी शिष्य की छाती पर चढ़े और पत्ते का दोना उसके गले के निकट रखकर एक चाकू से गले के पास चीरा लगाया फिर दोने में खून संग्रह करके वे सर्प को पिलाने लगे । अब शिष्य कैसे सो सकता था । उसकी निद्रा उड़ गई। पर उसे जब ज्ञात हुआ कि गुरुजी छाती पर चढ़कर गले से खून निकालकर सर्प को पिला रहे हैं, तब वह तुरन्त आँखें मूंदकर चुपचाप लेटा रहा । रक्त की धारा निकली, पर शिष्य ने कुछ भी चूँ-चां न की । सर्प को जब तृप्ति हो गई तो वह वापिस चला गया । गुरु ने सर्जन डाक्टर की तरह उस घाव को बन्द करके उस पर वन्यौषधि लगा दी, और पट्टी बाँध दी। जब गुरुजी छाती पर से नीचे उतर गए, तब शिष्य उठ बैठा । गुरु ने उपालम्भ की मुद्रा में उससे कहा - " इतनी जबर्दस्त नींद है तेरी ! तुझे कुछ पता चला या नहीं, अब तक क्या हो रहा था ?" शिष्य सविनय बोला - "जी हाँ, गुरुदेव ! मुझे सब पता है । आप मेरी छाती पर बैठे थे, हाथ में चाकू था, गले के पास चीरा लगाकर रक्त निकाल रहे थे ।" गुरु - " वत्स ! तब तू बोला क्यों नहीं ?" शिस्य ने विनय-भक्तिपूर्वक उत्तर दिया – “गुरुदेव ! मैंने सोचा, आप जो कुछ करते होंगे, मेरे हित के लिए कर रहे होंगे । मुझे आपके प्रति पूरी श्रद्धा और प्रतीति थी । मैं हृदय से आपके प्रति समर्पित था, इसलिए मुझे कुछ बोलने की गुंजा - इश ही नहीं थी गुरुदेव !" गुरु ने देखा कि शिष्य के हृदय में मेरे प्रति स्वतः स्फुरित विनय बहुमान, श्रद्धा-भक्ति एवं समर्पण भावना है । अतः गुरु के अन्तर् से सहज आशीर्वाद फूट पड़ा- - "धन्य हो वत्स ! तेरा कल्याण हो, तेरी आत्मा गुणों से परिपूर्ण होकर विकास के शिखर पर पहुँचे ।" यह है, शिष्य द्वारा परम हितैषी परोपकारी गुरु के प्रति स्वत: समर्पण एवं श्रद्धा-भक्ति की भावना ! Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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