________________
२६६ आनन्द प्रवचन : भाग १०
भावार्थ स्पष्ट है। वास्तव में गुरु के शिष्य पर इतने उपकार हैं कि उनसे उसका उऋण होना कठिनतर है । इसी बात को भगवान महावीर ने स्थानांग सूत्र में बताया है
___ "तिण्हं दुप्पडियारं समणाउसो ! तं जहा–अम्मापिउणो, भट्टिस्स, धम्मायरियस्स।"
"भगवान ने कहा-आयुष्मान श्रमणो ! तीन पद दुष्प्रतिकार हैं-उनसे उऋण होना दुःशक्य है
(१) माता-पिता से, (२) भर्ता (पालन-पोषणकर्ता) से और
(३) धर्माचार्य (धर्म गुरु) से । शिष्य स्वतः स्फुरणा से गुरु के प्रति विनीत बने
आजकल के कई विवेकमूढ़ शिष्य गुरु के उपकारों को स्मरण नहीं करते, न वे श्रद्धा और सम्मान की दृष्टि से उन्हें देखते हैं। इसलिए आजकल बहुत-से गुरु चिन्तित हैं कि शिष्य हमारी बात नहीं सुनते, हमारे प्रति सम्मान व श्रद्धा-भक्ति उनमें नहीं रहा, आये दिन गुरु उन्हें विनय का पाठ जोर-शोर से पढ़ाते हैं, रटाते हैं, विनय की गाथाएँ कण्ठस्थ करा देते हैं, फिर भी उनमें श्रद्धा, भक्ति या विनय की मात्रा नहीं बढ़ती और वे गुरु के सामने तने के तने रहते हैं। स्कूलों और कालेजों में विद्यागुरुओं की दशा तो और भी खराब है, वहां तो लगभग ७०-७५ प्रतिशत विद्यार्थी शिष्य ऐसे निकलेंगे, जो अपने विद्यागुरुओं का आदर नहीं करते, बल्कि उनकी अवज्ञा कर बैठते हैं, उनकी आज्ञाओं पर कोई ध्यान नहीं देते। इसलिए विद्यागुरुओं की भी बहुत बड़ी शिकायत है, छात्रों में अनुशासनहीनता, अविनीतता एवं उद्दण्डता में वृद्धि की।
मैं समझता हूँ इससे बड़ा दुर्भाग्य गुरुओं का क्या होगा ? गुरुओं के लिए रोने के दिन आ गये हैं, कि शिष्य उनकी कद्र नहीं करते । परन्तु इसमें मूल गलती गुरुओं की है, शिष्यों की नहीं । जैसे माता-पिता अतिशय लाड़ लड़ाकर अपनी सन्तान को बिगाड़ देते हैं, खर्चीला, असंयमी और उद्धत बना देते हैं, वैसे ही अयोग्य गुरु शिष्यों पर अतिशय लाड़-प्यार एवं मोह के कारण उन्हें सच्चा ज्ञान नहीं देते । कई गुरु स्वयं अयोग्य होते हैं, स्वयं कई दोषों के शिकार होते हैं, जिन्हें शिष्य जान जाते हैं, फिर उन गुरुओं के प्रति उनकी श्रद्धा-भक्ति समाप्त सी हो जाना स्वाभाविक है। गुरु को स्वयं सद्गुरु बनने का प्रयत्न करना चाहिए ।
प्रारम्भ से ही शिष्य को इतना प्रशिक्षित, अनुशासित और सुसंस्कृत करना चाहिए ताकि शिष्य को विनय, सेवा-शुश्रूषा और श्रद्धा-भक्ति के लिए बार-बार कहना, डांटना-डपटना, झिड़कना, उसे दूसरों के सामने टोकना, अपशब्द कहना आदि न पड़े,
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org