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________________ शिष्य की शोभा : विनय में प्रवृत्ति २६५ हिंसावृत्ति, उद्दण्डता, उच्छृखलता एवं स्वार्थवृत्ति होती ही है । परन्तु सौभाग्य से जंगल में पवित्रता की मूर्ति नारद मुनि से उसकी भेंट हुई। पहले तो उसने अपनी वृत्ति के अनुसार उद्धतता बताई। किन्तु नारद मुनि द्वारा दिये गये समयोचित युक्तिसंगत उपदेश से रत्नाकर के हृदय की आँखें खुल गईं। उसका हृदय-परिवर्तन हो गया । वह नारद मुनि का शिष्य बन गया और नारद मुनि के सान्निध्य एवं उपदेश के प्रभाव से धीरे-धीरे रत्नाकर का जीवन वाल्मीकि ऋषि के रूप में परिवर्तित हो गया । यह सब प्रताप गुरुवर नारद के शिष्य बनने के बाद वाल्मीकि के जीवन. निर्माण का था। गुरु शिष्य की काया को तो नहीं, उसके हृदय एवं जीवन की कायापलट कर देता है । शिष्य की काया में भी गुरु के अनुशासन में रहने पर बहुत ही परिवर्तन हो जाता है। उसकी आदतों, रुचियों, वृत्तियों, स्वभाव एवं क्षमता में अद्भुत परिवर्तन हो जाता है। उपकारी गुरु के प्रति शिष्य का धर्म : समर्पण यही कारण है कि गुरु के-विशेषतः धर्मगुरु के असंख्य उपकारों से उपकृत होने वाला सुशिष्य उनको अपना सर्वस्व समर्पित कर देता है, गुरु के प्रति श्रद्धा. भक्ति रखकर विनय और सेवा-सुश्रूषा करके वह उनका हृदय जीत लेता है । फिर तो गुरु अपने आप अपने सद्गुणों को शिष्य के जीवन में उतारता है। जब तक शिष्य गुरु के प्रति श्रद्धाभक्ति एवं विनय के साथ समर्पित नहीं हो जाता, तब तक गुरु के द्वारा वह असंख्य उपकारों से उपकृत, सुसंस्कृत एवं प्रशिक्षित नहीं हो सकता । इसीलिए चन्दन दोहावली में शिष्य पर गुरु के असंख्य उपकारों का वर्णन किया गया है गुरुचरणों का जो बना, 'चन्दन' सच्चा दास । तीन लोक की सम्पदा, बसी उसी के पास ॥ गुरुचरणों पर जो हुआ, 'चन्दनमुनि' कुर्बान । उस नर-सम कोई नहीं, पुण्यवान गुणवान ॥ जो जाता हो डूबने, लेते उसे उबार । 'चन्दन' श्रीगुरुदेव का, बहुत बड़ा उपकार ॥ जिसको सेवा-भक्ति पर, सद्गुरु बनें दयाल । खोटे ग्रह बन जायेंगे, शुभतर 'चन्दनलाल' ॥ 'चन्दन' गुरु निजशिष्य को, रखते पुत्र-समान । उन्हें सिखाते खोलकर, अपना ज्ञाननिधान ॥ गुरु होते हैं अनुभवी, देते अनुभव-ज्ञान । 'चन्दन' कभी न चूकते, अर्जुन वाले बान ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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