________________
२६४ आनन्द प्रवचन : भाग १० शिष्य बनने का मुख्य उद्देश्य जीवन-निर्माण
हाँ, तो मैं यह कह रहा था कि मनुष्य के शिष्य बनने का मुख्य उद्देश्य गुरु के निमित्त से अपना जीवन निर्माण करना है। गुजराती में जिसे 'घड़तर' कहते हैं, उसे ही हम हिन्दी में 'निर्माण' कहते हैं । निर्माण के बिना मानव-जीवन का ही नहीं, किसी भी पदार्थ का वास्तविक उपयोग नहीं होता। निर्माण या नवरचना का महत्व मैं व्यावहारिक दृष्टान्त द्वारा समझाता हूँ
आप सब जानते हैं, घड़ा मिट्टी से बनता है, परन्तु मिट्ठी इधर-उधर बिखरी हुई पड़ी हो तो क्या उससे घड़े का काम लिया जा सकता है ? कदापि नहीं। कुम्भकार उस बिखरी हुई मिट्टी को अपनी आवश्यकतानुसार पहले इकट्ठी करता है, उसे पानी के साथ मिलाकर सान-गूंदकर एक पिंड बना लेता है, तत्पश्चात् उस मिट्टी के पिंड में से थोड़ी-सी मिट्टी लेकर चाक पर चढ़ाता है, चाक घुमाता है, घड़े का आकार बनाता है। इस प्रकार कच्चा घड़ा तैयार हो जाने पर उसे आवे में पकाता है । मिट्टी के पिंड बनाने से लेकर आँवे में पकने पर घड़ा बनने तक की सारी प्रक्रिया को निर्माण, घड़तर या नवरचना कहते हैं। इसी प्रकार हीरा खान में पड़ा हो तब तक वह अन. घड़ कहलाता है, वही हीरा जब शाण पर चढ़ाया जाता है, और उसके अलग-अलग पहल बनाये जाते हैं, तब उस हीरे का मूल्य अनेकगुना बढ़ जाता है। क्योंकि उस हीरे का नवसर्जन या नव-निर्माण हुआ है। - सरकस में आपने अनेक जानवरों के आश्चर्यजनक करतब देखे होंगे । अगर इन जानवरों को प्रशिक्षित न किया जाता, उन्हें ट्रेनिंग देकर अभ्यास न कराया जाता तो उनका घड़तर या नवसर्जन नहीं हो सकता और वे इतने आश्चर्यजनक पराक्रम नहीं दिखा सकते ।
__ इसी प्रकार शिष्य के रूप में जो उनके सान्निध्य में आता है, गुरु उसका नवसर्जन या जीवन निर्माण करते हैं। अनघड़, असंस्कारी और प्राकृतिक पशुसम जीवन को वे घड़-घड़कर प्रशिक्षित, सुसंस्कारी, सुगठित, गुणवान एवं पराक्रमी बनाते हैं। इसे ही हम शिष्य के जीवन का नवनिर्माण कह सकते हैं, जो गुरु द्वारा किया जाता है । अनघड़ एवं असंस्कारी मनुष्य का जीवन पशुसम या कभी-कभी पशु से भी गयाबीता होता है । वह उच्छृखल, उद्दण्ड, स्वच्छन्द, असंयमी, अनुशासनहीन, अहंकारी एवं इन्द्रिय-विषयासक्त होता है, जबकि गुरु के सान्निध्य में शिष्य बनकर आने के बाद वही मनुष्य अनुशासित, प्रशिक्षित, संयमी, विनीत, नम्र, धर्ममर्यादा एवं धर्म के नियमों के नियन्त्रण में चलने वाला तथा इन्द्रियों पर अंकुश रखने वाला बन जाता है।
वाल्मीकि ऋषि का नाम तो आप सबने सुना ही होगा । उनका पूर्वजीवन रत्नाकर लुटेरे के रूप में अनघड़, असंस्कारी, उद्दण्ड एवं निरंकुश था । लूट-मार करने वाले व्यक्ति का जीवन दूसरों के लिए पीड़ादायक होता ही है। उसके जीवन में
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org