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शिष्य की शोभा : विनय में प्रवृत्ति २६३
गुरु मुझे सावधान करके पथभ्रष्ट होने से बचाएँ, किसी विवादास्पद विषय में कोई उलझन हो तो सुलझाएँ, किसी विषय में मार्ग-दर्शन चाहूँ तो मार्गदर्शन, सुझाव, परामर्श या सलाह दें, कोई विवाद या कलह उपस्थित हो जाए तो न्यायोचित निर्णय दें । निष्पक्ष निर्णय ( गुरुप्रदत्त) तुरन्त शिरोधार्य करना और गुरु की आज्ञा का श्रद्धाभक्ति और विनय के साथ पालन करना शिष्य का प्रधान कर्तव्य था । गुरु शिष्य की उन्नति - अवनति, हिताहित, कर्तव्याकर्तव्य का पूरा ध्यान रखता था, ताकि कुल वर्ण और धर्म की मर्यादाओं की सुरक्षा हो ।
कहीं शिष्य द्वारा जरा-सी भी मर्यादाओं का उल्लंघन बिना किसी लिहाज या संकोच के फौरन उसे टोकते, सावधान लाने का प्रयास करते ।
अगर कदाचित् कोई शिष्य गुरुओं के परोक्ष में गुप्तरूप से अनाचार या पाप का सेवन कर लेता तो गुरु उसे नियमानुसार प्रायश्चित्त देकर या स्वयं उसके द्वारा आलोचना दोष स्वीकार करवाकर तथा यथोचित प्रायश्चित्त स्वीकार करवाकर उसकी जीवनशुद्धि या आत्मशुद्धि करवाते थे । इस प्रकार अपने जीवन का नैतिक-धार्मिक दृष्टि से सर्वांगपूर्ण निर्माण हो, इस विचार से किसी गुरु का शिष्यत्व स्वीकार करता था । गुरु पर यह जिम्मेवारी रहती थी कि वह शिष्य के जीवन में निहित कुसंस्कारों, कुविचारों, गलत प्रवृत्तियों, गलत आचरणों, खोटी आदतों एवं गन्दी कुटेवों को निकालकर उसे कुल, वर्ण (जाति) और धर्म के अनुशासन में रखकर सुसंस्कारों, सुविचारों, सदाचार के नियमों, शिष्टाचार, अच्छी आदतों आदि से उसके जीवन को सुशोभित करे । इस प्रकार शिष्यत्व स्वीकार करने के पीछे बहुत ही उदात्त भावनाएँ, उच्च आशय एवं जीवन-निर्माण की तमन्ना होती थी ।
तुलसी की रामायण के अनुसार श्रीरामचन्द्रजी के कुलगुरु वशिष्ठ थे । महाराजा दशरथ अपने उत्तराधिकारी राजा बनाने की परम्परा में थोड़ा-सा रद्दोबदल करना चाहते थे । कुल परम्परा यह थी कि राजा के मरने के बाद उसके बड़े पुत्र का राज्याभिषेक करके उसे राजा बनाया जाता था, किन्तु महाराजा दशरथ चाहते थे कि मैं अपने जीते जी ही अपने बड़े पुत्र श्रीराम को राजगद्दी सौंप कर तप एवं संयमसाधना करते हुए अपना पिछला जीवन बिताऊँ । उनकी भावना उदात्त एवं पवित्र थी । मगर कुल परम्परा में परिवर्तन कुलगुरु की राय के बिना नहीं हो सकता था । अतः कुलगुरु वशिष्ठ के समक्ष उन्होंने अपनी समस्या रखी। जिसका निर्णय यथोचित विचार-विमर्श के बाद ऋषि वशिष्ठ ने इस प्रकार दिया -
होता तो निष्पक्ष गुरु करते और सुपथ पर
जो पांचह मत लागे नोका ।
तो रघुवर सन कर देह टीका ॥
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अगर पंचों (चार वर्ण और पाँचवें - ब्राह्मण गुरु वर्ग) को यह बात अच्छी (ठीक) लगे तो श्रीराम को राजतिलक दे दिया जाये ।
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