________________
शिष्य की शोभा : विनय में प्रवृत्ति
प्रिय धर्मप्रेमी बन्धुओ!
आज मैं आपके समक्ष शिष्य-जीवन की शोभा के सम्बन्ध में चर्चा करना चाहता हूँ। शिष्य का जीवन कैसा होना चाहिए ? कौन-सा शिष्य-जीवन अच्छा है, कौन-सा बुरा ? किस प्रकार के शिष्य-जीवन से व्यक्ति अपना कल्याण एवं विकास कर सकता है एवं किस प्रकार के शिष्य-जीवन से नहीं ? इन सब पहलुओं पर मैं विश्लेषण करने का प्रयत्न करूँगा ।
गौतमकुलक का यह बयालीसा जीवनसूत्र है। इस जीवनसूत्र में महर्षि गौतम ने बताया है
सीसस्स सोहा विणए पवित्ति । 'शिष्य की शोभा विनय-प्रवृत्ति में है।' शिष्य क्यों और किस उद्देश्य से ?
भारतीय संस्कृति में एक बात पर बहुत जोर दिया गया है कि 'मनुष्य को अपने जीवन में शिष्य अवश्य बनना चाहिए, उसे किसी न किसी को गुरु अवश्य बनाना चाहिए, 'नगुरा' रहना ठीक नहीं है।' किसी न किसी गुरु का शिष्यत्व स्वीकार करना भारतीय के लिए अनिवार्य था।
भारतवर्ष में मुख्यतया तीन प्रकार के गुरु माने जाते थे(१) कुलगुरु, (२) विद्यागुरु या कलाचार्य, और (३) धर्मगुरु (धर्माचार्य अथवा सम्प्रदाय का आचार्य अथवा साधु)।
इन तीनों प्रकार के गुरुओं के शिष्य बनने के पीछे आशय यही था कि शिष्य बनने वाला व्यक्ति कुल, विद्या या धर्म की मर्यादाओं का पालन करे, अनुशासन में रहे, उच्छृङ्खल न बने, मर्यादाओं या नीतियों का उल्लंघन करके अनाचारी या दुराचारी न बन जाए, गुरु के नियन्त्रण में रहे, गुरु के प्रति विनय, श्रद्धा, भक्ति आदि रखते हुए उनकी आज्ञाओं का निःसंकोच पालन करे। व्यक्ति विनीत और श्रद्धालु होकर किसी गुरु का शिष्य इसलिए बनता था कि किसी भी समय में कुल, विद्या या धर्म की मर्यादाओं या मौलिक नीति-नियमों का उल्लंघन करने लगे तो
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org