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________________ चारित्र की शोभा : ज्ञान और सुध्यान-२ २५७ वह कुछ ही देर टिककर फिर स्मृति, कल्पना और वर्तमान घटना, इन तीनों में से किसी एक का निमित्त मिलते ही भागने लगता है। निष्कर्ष यह है कि मन सुध्यान या दुर्ध्यान में से किसी न किसी ध्यान में लगा रहता है। गौतम महर्षि यहाँ सुध्यान को चारित्र की शोभा इसलिए बता रहे हैं कि कि दुर्ध्यान की आँधी आते ही प्रसन्नचन्द्र राजर्षि की तरह सारा चारित्र उड़ जाता है, वहां न तो चारित्र का पता रहता है, न सम्यग्ज्ञान का। दोनों ही पलायित हो जाते हैं। सुध्यान और दुर्ध्यान क्या और कहाँ ? इसी कारण ध्यान के मुख्यतया दो भेद-सध्यान और दुर्ध्यान अथवा प्रशस्त और अप्रशस्त ध्यान बताये गये हैं । अप्रशस्त एवं त्याज्य दुर्ध्यान के दो प्रकार हैंआर्तध्यान और रौद्रध्यान । इसी प्रकार प्रशस्त एवं उपादेय सुध्यान के दो प्रकार ये हैं-धर्मध्यान और शुक्लध्यान ।' आज अधिकांश मानव दुर्व्यानों के चक्कर में घूम रहे हैं। बाहर से तो स्थिति खुशहाल-सी दीखती है, लेकिन भीतर उनके अशान्ति, हाय-हाय, चिन्ता और बेचैनी तथा परेशानी है। आर्तध्यान का पेट केवल इतना ही बड़ा नहीं है, उसकी हजारों-लाखों लहरें हैं । आर्तध्यान और रौद्रध्यान ऐहिक फल चाहने वालों के होते हैं, उनके असंख्य प्रकार हैं। ये चार ध्यान बताये हैं, उनमें से दो को छोड़ना तप है, और दो का आराधन तप है । एक बहन या भाई किसी इष्ट वस्तु या व्यक्ति के वियोग से या किसी अनिष्ट वस्तु या व्यक्ति के संयोग से पीड़ित है, अर्थसंकट से ग्रस्त है, हानि से चोट खाकर चिन्तित है, स्वयं रुग्ण है या पारिवारिकजन रुग्ण हैं, उस समय वह ज्ञान बल से चित्त को एकाग्र करके धर्मध्यान में लगाता है, और इस प्रकार के आर्तध्यान को छोड़ता है तो तप है। पीड़ा, वेदना या चिन्ता के समय रोना, चिन्ता करना, विलाप करना, छाती-माथा कूटना, किसी को कोसना, पीटना आदि सब आर्तध्यान हैं, यह पापकर्मबन्ध का जनक है। ऐसे समय में मन को यों समझा ले कि कृत. कर्मों का फल तो भोगना ही पड़ेगा, चाहे रो-रोकर भोगो, चाहे प्रसन्नता से। प्रसन्नता और शान्ति से कर्मफल भोगना और चुप रहना निर्जरा (कर्मक्षय) का कारण है। किसी के साथ अनबन, टक्कर, लड़ाई-झगड़ा, दंगा-फिसाद हो गया, किसी से किसी स्वार्थभंग के कारण वैर, द्वष बँध गया। उसे फंसाने, मारने, नीचा १. हेयमाद्यं वयं विद्धि दुर्ध्यानं भववर्द्धनम् । उत्तरं द्वितयं ध्यानम्, उपादेयं तु योगिनाम् । -महापुराण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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