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आनन्द प्रवचन : भाग १०
देखते ही वहाँ की पुरानी स्मृतियाँ ताजी हो जाना दैशिक स्मृति है। इसी प्रकार बाह्यवृत्त और व्यक्ति के मिलते ही स्मृति आ जाती है, मन उसमें उलझ जाता है। स्मृति भूतकालीन चिन्ता है तो कल्पना भविष्यकालीन चिन्ता। क्या करना है ? कहाँ जाना है ? क्या लिखना है ? आदि अनेक कल्पना मन संजोता रहता है । भविष्य की कल्पना मन को विचलित करती रहती है । इसी प्रकार वर्तमान घटना भी मन को आन्दोलित कर देती है । ध्यान में बैठे हैं, अचानक सुगन्ध आई, कोई संगीत की स्वर-लहरी कान में पड़ी, या अपशब्द सुनने को मिले, कोई सुन्दर या असुन्दर वस्तु देखी तो मन उसमें उलझ पड़ा । एकाग्रता खत्म हो गई । सुध्यान के लिए इन तीनों से विच्छिन्नता प्राप्त करना आवश्यक है।
प्रसन्नचन्द्र राजर्षि भगवान महावीर के ध्यान-साधक शिष्यों में प्रसिद्ध थे, किन्तु उनका मन अतीत की घटना का स्मरण तथा वर्तमान का अपशब्द सुनकर विचलित एवं व्यग्र हो गया था। कथा तो आपको मालूम ही है कि मगध सम्राट श्रेणिक भगवान महावीर के दर्शनार्थ जिस पथ से जा रहा था, उसी पथ के एक किनारे प्रसन्नचन्द्र राजर्षि ध्यान मुद्रा में खड़े थे । राजा श्रेणिक के एक सचिव दुर्मुख ने उन्हें देखकर तीव्र कटाक्ष से व्यंग्य कसा-"अजी ! सम्पूर्ण राज्य भार छोटे-से बच्चे पर डालकर यहाँ ध्यानी साधु का ढोंग रचाये खड़े हो ! पता नहीं तुम्हें, शत्रुराजाओं ने तुम्हारे राज्य पर हमला कर दिया है, राजकुमार अभी नादान बच्चा है, वह राज्य की सुरक्षा कैसे करेगा? इसलिए इस साधु वेश का ढोंग छोड़कर एक बार जनता के हित के लिए राज्य सँभालो, बाद में ढलती उम्र ने यह साधना कर लेना।"
बस, यह सुनते ही अतीत की स्मृति और वर्तमान की घटना से उनका चित्त डांवाडोल हो उठा । वे धर्म-शुक्लध्यान छोड़कर आर्त्त-रौद्रध्यान के प्रवाह में बह गए। मन ही मन शत्रुराजाओं से प्रतिशोध लेने को उतारू हो गए, मनःकल्पित शस्त्रास्त्र भी हाथ में ले लिये और मन से ही शत्रु सेना से जूझने लगे।
इसी दौरान श्रेणिक राजा ने जब प्रभु महावीर से उनकी गति के बारे में प्रश्न किया और नरक बताने पर चौंककर रहस्य पूछा-तो प्रभु ने सारा रहस्य खोला।
इधर कुछ ही समय बाद मुनि का चिन्तन-क्रम बदला और वे पश्चात्ताप करके अपने आत्मध्यान में एकाग्र हो गये । शेष कहानी काफी विस्तृत है। यहाँ उससे कोई मतलब नहीं। यहाँ तो इतना ही बताना था कि अतीत की स्मृति और वर्तमान की घटना से प्रसन्नचन्द्र राजर्षि का चित्त उचट गया और सुध्यान-भंग हो गया, एकाग्रता नष्ट हो गई ।
वास्तव में देखा जाए तो मनुष्य का मन इतना चंचल और व्यग्र है कि उसको एक वस्तु में या आत्मा में भी लगाते हैं तो वह अधिक देर तक नहीं टिकता।
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