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________________ २४६ आनन्द प्रवचन : भाग १० आये हैं ? आपके पिता क्या करते हैं ? आश्रम में निवास करते हुए आपको कितने दिन हो गये ? क्या आपने सिद्धि प्राप्त कर ली ? ब्रह्मसाक्षात्कार कर लिया ?" प्रश्न करने की इस शैली पर स्नातक को हँसी आ गई । उसने कहा" मित्र ! शेष प्रश्नों का उत्तर बाद में मिलेगा। अभी आप इतना ही समझ लें कि मैं उपकौशल का राजकुमार हूँ। मेरा यह समापन वर्ष है, जबकि आप यहाँ प्रवेश ले रहे हैं ।" यों कहकर तरुण स्नातक अपने तेजस्वी ललाट को ऊपर उठाकर ऋषि एलूष के निवास स्थान की ओर चला गया । नीरव्रत किंकर्त्तव्यविमूढ़ राजकुमार से दीखते हुए सभी स्नातक इतने सरल, इतनी सादी वेशभूषा में, मौन और अनुशासनबद्ध क्या इनकी सुखाकांक्षाएं नष्ट हो गई हैं ? ये प्रश्न कुछ देर तक मन में घुलते रहे, फिर तो निद्रा देवी की गोद में विश्राम किया । प्रातःकाल सूर्योदय से दो घड़ी पूर्व सब स्नातक जाग पड़े। नीरव्रत की भी नींद टूटी। प्रार्थना हुई । शौच- स्नानादि से निवृत्त होकर वह सन्ध्या-वन्दनादि नित्यकृत्य में संलग्न हुआ । आश्रम जीवन का आज पहला दिन था । ध्यान एकदम तो नहीं जमा, परन्तु चिन्तन से एक बात सामने आई - " जब देह नष्ट हो जाती है, तब भी क्या राजारंक, स्त्री-पुरुष, बालक- वृद्ध का भेद रह जाता है ? नहीं । फिर मेरे राजकुमारत्व को क्या अमर रहना है ? नहीं नहीं । जीवन के दृश्यभाग नश्वर हैं, क्षणिक हैं, असन्तोषप्रद हैं । पूर्णता प्राप्त करने हेतु मनुष्य को ऐसी क्षुद्र और भेदभाव की मान्यताएँ दिल-दिमाग से हटा देनी चाहिए। शरीर में जो अव्यक्त आत्मा है, उसे पाने के लिए अहंभाव छोड़ना ही पड़ेगा ।" इस प्रकार के सुध्यान के रूप में चिन्तन करते ही राजकुमार नीरव्रत का कल वाला बोझ हलका हो गया । वह स्फूर्तिमान एवं प्रसन्न होकर उठा और कर्त्तव्याचरण में प्रवृत्त हुआ । किन्तु यह अहंकार भी कितना बलवान है कि मनुष्य को बार-बार नये-नये रूप में आकर नचाता है । उसके शिकंजे से यदि कोई बचा सकता है तो निरन्तर ध्यान के रूप में उन्नत चिन्तन, भावनाओं और प्रबल निष्ठाओं का प्रवाह ही । जब-जब अहंकार उसका पीछा करता, वह उसी प्रकार का उन्नत चिन्तन करता । फिर भी वह अहंकार नीरव्रत के मस्तिष्क में चढ़ बैठता, वह सह- स्नातकों से झगड़ बैठता, शिक्षकों से दुराग्रह कर बैठता । उस समय उसे लगता कि उसके पक्ष में ही न्याय है । परन्तु जब वह ध्यान के रूप में चिन्तन की तराजू उठाता और विराट् आत्माओं की तुलना में अपनी छोटी-सी इकाई को तोलना तो उसका अहंकार, झूठी मान-मर्यादा, मोह, दम्भ दुराग्रह, कुतर्क आदि सब कुछ तिरोहित हो जाता | नीरव्रत Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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