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________________ चारित्र की शोभा : ज्ञान और सुध्यान -२ २४७ अपने शुद्ध चेतन, अद्वैत - शुद्ध आत्मा का अनुभव और दर्शन करने लगता । सुध्यान के प्रशिक्षण का यह क्रम उसके अन्तर् को परिष्कृत और विकसित करता जा रहा था, उसका दृष्टिकोण और चारित्र भी उदार, विकसित और सक्रिय रूप में परिवर्तित होता जाता था । फिर भी अभी वह साधक ही था, अपरिपक्व स्थिति का ! आश्रम के नियमानुसार भिक्षाटन करना प्रत्येक स्नातक के लिए अनिवार्य था । इससे नीरव्रत का वर्षों का प्रसुप्त अहंभाव पुनः जाग उठा । राजकुमार होकर वह कैसे भिक्षा माँगे । परन्तु फिर उसी अन्तर्ध्यान से उसके मन का समाधान हुआ - 'भिक्षाटन से समत्व आए बिना उसे आत्मदर्शन नहीं होंगे ।' अतः भिक्षापात्र उठाया । एक ग्राम में प्रविष्ट हुआ भिक्षुक नीरव्रत। किसी के द्वार पर जाकर भिक्षा माँगते उसे लज्जा अनुभव हो रही थी। ग्राम प्रमुख की कन्या विद्या ने उसके इस संकोच को जानकर एक मुट्ठी भर धान्य लिया और नीरव्रत के आगे भूमि पर गिरा दिया। नीरव्रत ने कहा- "भद्र ! इस तरह अन्न को फेंकना ही था तो लेकर यहाँ आई ही क्यों ?" विद्या ने हँसकर उत्तर दिया – “तात ! मैं ही क्यों, सारा संसार ऐसा ही करता है ? आपने भी जिस उद्देश्य से यह जीवन अंगीकार किया, उस उद्देश्य को पूरा करने में कितना संकोच या भारीपन लगता है ? क्या यह धान्य को बाहर गिराने जैसा अपराध नहीं है ।" नीरव्रत की आँखें खुल गईं। उसमें दृढ़ निश्चय आ गया, जिसमें उसके संकोच, लज्जा और अहंकार सब घुल गए। वह प्रसन्नतापूर्वक भिक्षा लेकर आश्रम में पहुँचा । उसका बोझ अब हल्का हो चुका था, चारित्रमय जीवन अब उसके लिए जटिल, भ्रमपूर्ण एवं असंतोषयुक्त नहीं रहा। नीरव्रत ज्यों ही सन्ध्या करने बैठा सुध्यान में शून्य की तरह वह ऐसे खो गया, मानो उसका बाह्य जगत् से कोई सम्बन्ध भी न रहा हो । उसकी समग्र चेतना अहंभाव की संकीर्ण परिधि से ऊपर उठकर अनन्तता की अनुभूति कर रही थी । वह अपने आपको निर्मल, शान्त और सन्तुष्ट अनुभव कर रहा था। अब ब्रह्मज्ञान के लिए किया हुआ उसका अध्ययन ध्यान के रूप में परिपक्व होकर समत्व के रूप में चरितार्थ हो जाता था । स्वच्छ, आपने देखा - ध्यान के बिना नीरव्रत का शास्त्रीय ज्ञान आचरण में न आ सका । उस ज्ञान पर अहंकार, मद, मोह, मत्सर आदि का पर्दा पड़ जाता । किन्तु सुध्यान ही उस पर्दे को तोड़ता और विराट् शुद्ध आत्मा के दर्शन कराकर तदनुसार आचरण के लिए प्रेरित और उत्साहित करता । सुध्यान : ज्ञान को आत्मा में स्थिर रखने वाला मनुष्य का मन बड़ा चंचल और हठीला होता है । शास्त्रीय ज्ञान कर लेने पर भी मन उसमें नहीं लगता, फलतः वह ज्ञान आत्मा से दूर हो जाता है, आचरण में नहीं आता । मन प्रतिपल विषय कषायों की ओर आकर्षित होता रहता है, परन्तु Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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