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________________ चारित्र की शोभा : ज्ञान और सुध्यान-२ २४५ कर्म क्यों और कैसे लगते हैं ? कर्मों का आत्मा से संयोग कैसे टूट सकता है ? कर्मबन्ध को तोड़ने के क्या-क्या उपाय हैं ? आत्मा नित्य है या अनित्य ? आत्मा में कौन-कौन-सी शक्तियाँ हैं, उसके निज गुण कौन-कौन से हैं ? उन पर आये हुए आवरण कैसे दूर हो सकते हैं ? इत्यादि सब बातों का प्रत्यक्षवत् दर्शन सुध्यान में हो जाता है । अगर सिर्फ ज्ञान पर ही आश्रित रहा जाए, सुध्यान न किया जाए तो आत्मदर्शन न होने के कारण साधक स्वरूप- आचरणरूप चारित्र में अन्त तक टिक नहीं सकेगा, मन में आतं रौद्रध्यान के विकल्प आएँगे, ज्ञान — सिर्फ सैद्धान्तिक ज्ञान उसे न रोक सकेगा । उन्हें रोके बिना कर्मबन्ध न रुकेगा और कर्मबन्ध के रोके या क्षय किये बिना मुक्ति नहीं हो सकती । इसलिए सुध्यान ही परम्परा से मुख्य कारण है - मुक्ति का । इसीलिए अमितगति श्रावकाचार में स्पष्ट कहा है तपांसि रौद्राण्यनिशं विधत्ताम्, शास्त्राण्यधीतामखिलानि नित्यम् । धत्तां चरित्राणि निरस्ततन्द्रो, न सिद्धयति ध्यानमृते तथापि ॥ 'निश - दिन घोर तपश्चरण भले करो, प्रतिदिन सम्पूर्ण शास्त्रों का चाहे अध्ययन करो, प्रमादरहित होकर भले ही चारित्र धारण करो, तथापि ध्यान (आत्मध्यान) के बिना सिद्धि-मुक्ति नहीं हो सकती ।' तत्त्वसार में भी स्पष्ट कहा है- " ध्यान के चाहता है, वह उस मनुष्य के सदृश है, जो पंगु होने चाहता है ।" बिना जो कार्यक्षय करना पर भी मेरुशिखर पर चढ़ना जिज्ञासु राजकुमार नीरव्रत को महर्षि एलूष ने आशीर्वाद प्रदान किये - " वत्स ! आश्रम में रहकर तप करो, एक दिन तुम्हें अवश्य ही ब्रह्मदर्शन ( आत्मदर्शन ) होगा ।" फिर उसकी पीठ पर हाथ फेरा और सामान्य विद्यार्थियों की तरह ब्रह्मदर्शनार्थी नीरव्रत राजकुमार को छात्रावास के एक सामान्य कक्ष में रहने का प्रबन्ध कर दिया । राजकुमार नीरव्रत जीवन में पहली बार ऐसे कमरे में ठहरा, जिसमें उसकी दास-दासियाँ भी नहीं रहती थी, सारा सामान उसने अपने हाथों से उठाया, एकदम सादा भोजन भी उसी दिन मिला था, जिसे ग्रहण करना पड़ा। आश्रम व्यवस्था के अपमान की बात न रही होती तो वह परोसे हुए भोजन की थाली दूर फैंक देता । सायंकाल होने में अभी विलम्ब था, प्रथम दिन ही नीरव्रत के मस्तिष्क में तूफान मच गया । इतना शुष्क जीवन कभी देखा नहीं था, इसलिए उससे अरुचि होना स्वाभाविक था । शयन से पूर्व नीरव्रत ने एक अन्य स्नातक ने पूछा - "तात ! आप कहाँ से Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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