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________________ २४४ आनन्द प्रवचन : भाग १० दुर्बल साधक का मन जरा-सी शारीरिक पीड़ा, मानसिक चिन्ता अथवा इष्टवियोग या अनिष्ट संयोग में आकुल-व्याकुल हो जाता है, उस साधक में भी यह सैद्धान्तिक ज्ञान तो होता ही है कि शरीर और आत्मा भिन्न-भिन्न हैं। कष्ट और पीड़ा आत्मा में नहीं होती, शरीर में होती है। शरीर नश्वर है, भौतिक है, आत्मा अविनाशी है, ज्ञानादि गुणों का पुंज या अनन्त शक्तिमान है । भौतिक शक्ति उसके आगे कुछ भी नहीं है । परन्तु यह ज्ञान तब तक कृतकार्य नहीं हो पाता, जब तक कि उसके साथ सुध्यान न हो । सुध्यान होने पर आत्मा और शरीर का भेदज्ञान कृतकार्य हो जाता है और चारित्र भी विशुद्ध एवं कर्मक्षय का कारण बनता है। एक प्रसिद्ध चारित्रात्मा सन्त के द्वारा अनुभूत सुध्यान के चमत्कार की घटना उनके शब्दों में ही सुनिये बात नसीराबाद छावनी की है। वहां एक दिन शरीर ज्वरग्रस्त होने से निद्रा पलायन कर रही थी। सहसा सीने के एक सिरे में गहरी पीड़ा उठी। मुनि लोग निद्राधीन थे। मैंने उस वेदना को भुला देने हेतु चिन्तन (धर्मध्यान) चालू किया--पीड़ा शरीर को हो रही है । मैं तो शरीर से अलग हूँ। शुद्ध, बुद्ध, निःशोक और नीरोग । मेरे को रोग कहाँ ? मैं तो हड्डी-पसली से परे चेतन रूप आत्मा हूँ। मेरा रोग, शोक और पीड़ा से कोई सम्बन्ध नहीं । मैं आनन्दमय हूँ। क्षणभर में ही देखता हूँ कि मेरे तन की पीड़ा न मालूम कहाँ विलीन हो गई । मैंने अपने आपको पूर्ण प्रसन्न, स्वस्थ और पीडारहित पाया। यह थी ध्यान की अद्भुत महिमा जिसके बल पर ज्ञान (भेद-विज्ञान) भी सक्रिय और कृतार्थ हुआ तथा चारित्र भी । पीड़ा में आर्त्तध्यान होने के बदले धर्मध्यान हुआ। सुध्यान के बिना आत्मदर्शन नहीं होते ज्ञान से वस्तुस्वरूप का बोध अवश्य होता है, लेकिन अकेला ज्ञान चारित्र के साथ हो तो वह तत्त्वबोध प्रयोग के बिना आत्मदर्शन नहीं करा सकता और प्रयोग होता है -सुध्यान के द्वारा । ‘णाणसार' में कहा है पाहाणम्मि सुवणं कठे अग्गी विणा पओहि । ___ण जहा दीसंति इमो, झाणेण विणा तहा अप्पा ॥ "जैसे पाषाण में सोना और काष्ठ में अग्नि बिना प्रयोग नहीं दीखती, वैसे ही ध्यान के बिना आत्मा के दर्शन नहीं हो पाते ।" वास्तव में, ज्ञान से तो आत्मा का स्वरूप मालूम होता है, लेकिन ध्यान से उसका वास्तविक दर्शन होता है, क्योंकि ध्यान में साधक आत्मा का प्रत्येक पहलू से चिन्तन-मनन, विश्लेषण करता है। इस प्रकार के एकाग्रचित्तपूर्वक विश्लेषण से साधक को आत्मा के स्वरूप के अलावा उसका शरीरादि के साथ सम्बन्ध, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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