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________________ चारित्र की शोमा : ज्ञान और सुध्यान–२ २४३ फूट गई । सारा रस बह गया। यह देखकर उस संन्यासी की आँखें क्रोध से लाल हो गयीं । वह कहने लगा-"अलभ्य स्वर्ण-निर्माणकारक रस का यह दुरुपयोग !" योगी आनन्दघनजी ने मुस्कराते हुए शान्ति से कहा-"मित्र संन्यासी प्रवर ! यह जड़ रस ढुल गया, इसके लिए तुम अपना क्रोध प्रकट कर रहे हो, लेकिन अपना आत्मरस कहाँ-कहाँ और कैसे-कैसे ढुल रहा है ? इसका भी कोई विचार है, आपको? आत्मरस के आगे इस जड़रस की कीमत कानी कोड़ी की भी नहीं है।" संन्यासी ने कहा- "क्या आपके पास स्वर्ण-सर्जक सिद्धरस प्राप्त करने की शक्ति है ?" योगी आनन्दघनजी- "आत्मा में अनन्त शक्ति है, संन्यासीवर ! आपको सिद्धरस चाहिए क्या ?" संन्यासी के कहने से पहले ही योगी आनन्दघनजी ने पास ही पड़ी हुई एक पत्थर की चट्टान पर पेशाब किया । देखते-देखते ही वह सारी चट्टान सोने की बन गई । अब तो संन्यासी का क्रोध हवा हो गया। वह देख चुका आत्मशक्ति का प्रत्यक्ष चमत्कार ! इतनी महान् शक्ति ! और इतनी सरलता, विनम्रता और शक्ति का न अभिमान, न प्रदर्शन ! संन्यासी प्रभावित होकर आनन्दघनजी के चरणों में गिर पड़ा। कहने लगा--"धन्य है, आपकी आत्मजागृति को! आपने अपने सद्भाव को सुध्यान के साँचे में ढाल कर पचाया है । इसी से आपका चारित्रबल उज्ज्वल है।" यह है-ज्ञान के साथ सुध्यान होने पर चारित्र की उज्ज्वलता में वृद्धि का ज्वलन्त उदाहरण ! अगर योगीश्वर आनन्दघनजी के आत्मज्ञान के साथ सुध्यान न होता तो आत्मजागति न रहती, और वे रसकुप्पी लेकर स्वर्णसिद्धि के मायाजाल में फंस जाते, उनका चारित्र भी दूषित होता और उसका ज्ञान भी केवल तोतारटन ही रहता। सुध्यान-बल हो, तभी ज्ञान और चारित्र दोनों सक्रिय प्राचीन काल के साधु और गृहस्थ दोनों रात्रि के नीरव एवं प्रशान्त वातावरण में धर्मजागरण के माध्यम से धर्मध्यान एवं कभी कभी शुक्लध्यान किया करते थे। उसमें निरन्तर शुभ अथवा शुद्ध आत्मचिन्तन के माध्यम से अपने सैद्धान्तिक ज्ञान को वे सक्रिय बनाने का प्रयत्न करते थे, अपनी अनावृत आत्मशक्तियों को ध्यानबल से जागत और अनावृत करने और तदनुसार चारित्र में पराक्रम करने के लिए आत्मा को प्रोत्साहित और प्रेरित किया करते थे, कई दृढ़ संकल्प, शुभ अध्यवसाय इन्हीं क्षणों में होते थे । अगर वे इस प्रकार का सुध्यान न करते तो उनका ज्ञान केवल मस्तिष्क के कोष में बन्द रहता, उनका चारित्र केवल कुछ पारम्परिक क्रियाकाण्डों में सीमित और प्रदर्शन की वस्तु रह जाता। उनकी आत्मा में ध्यान के बिना कोरे ज्ञान से स्वरूपरमणरूप चारित्र का आचरण करने की शक्ति नहीं आती और न ही उनकी आत्मा में अनिर्चचनीय आनन्द और शान्ति की अनुभूति होती। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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