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________________ २४२ आनन्द प्रवचन : भाग १० "ध्यानाभ्यास के बिना बहुत-से शास्त्रों का पठन (तज्जनित ज्ञान) और नानाविध आचारों का पालन व्यर्थ है।" _ज्ञान से तो सिर्फ पदार्थों के वास्तविक स्वरूप का बोध हो जाता है । सांसारिक कार्यों के प्रति सुषुप्ति या विरक्ति का अभ्यास सुध्यान से ही हो सकता है, और तब जो धर्माचरण (चारित्र) होगा, वह रूढ़िगत, प्रदर्शन या कोरा व्यावहारिक नहीं होगा; वह होगा-ठोस, सहज एवं आत्म-स्फुरणागत । इसलिए ज्ञान के साथ सुध्यान आत्मजागृति का अंग है। एक ऐतिहासिक उदाहरण द्वारा मैं अपनी बात स्पष्ट कर दूं सुप्रसिद्ध योगी आनन्दघनजी के पास रसकुप्पी की शीशी लिये हुए एक संन्यासी आया और बोला-"इस रस की एक बूंद हजारों-लाखों मन लोहे को सोना बना सकती है। मैं इसे आपको भेंट देने के लिये लाया है। लीजिये इसे ।" आनन्दघनजी ने पूछा-"पहले यह तो बताइये कि इसमें आत्मा है ? आत्मा के विकास के लिए यह कितनी उपयोगी है ? क्या इसके रस से आत्मा में निहित निज गुण, जिन पर आवरण आये हुए हैं, प्रगट हो जाएँगे ?" संन्यासी ने कहा-"अजी ! आत्मा-वात्मा की क्या बात करते हैं आप । इस रसकुप्पिका में वह सिद्धरस है, जिससे सभी मनोकामनाएँ सिद्ध कर सकेंगे आप।" आनन्दघनजी निःस्पृह अपरिग्रही साधु थे; उनके लिए मिट्ठी और सोना बराबर थे । उनका "समलोष्ठाश्म कांचनः" का ज्ञान आज सुध्यान के चक्र पर चढ़ा। वे चिन्तन में डूब गये, क्या मतलब है अकिंचन चारित्रवान साधु को इस रस, से सोना बनाने से और जिस परिग्रह को छोड़ दिया है, उस परिग्रह में फंसने से ? उन्होंने निःस्पृह संत के लहजे में ही कहा-"जिसमें आत्मा नहीं, आत्मविकास के लिए जो उपयोगी नहीं, जिसमें आत्मा पर आवृत कर्मजाल को हटाकर आत्मा के निज गुण प्रकट करने की शक्ति नहीं, बल्कि जिसके सम्पर्क से आत्मा परिग्रहासक्त बनकर कर्मजाल को और गाढ़ बना सकती है, वह चीज मेरे काम की नहीं।" संन्यासी ने कहा- "मेरे गुरु बहुत बड़े पहुँचे हुए सिद्धपुरुष हैं। उनके जैसा और कोई योगी वर्तमान में नहीं है । मैंने उनकी सेवा करके आपके प्रति धर्मस्नेहवश आपके लिए ही यह दुर्लभ वस्तु प्राप्त की है। आप इसे लौटाइए मत । आप अपने काम में न लेना, किसी दुःखी भक्त का उद्धार इससे कर देना।" निःस्पृह आनन्दघनजी ने सोचा-इसे आत्मशक्ति का अभी ज्ञान नहीं है, और ज्ञान है भी तो सिर्फ तोतारटन है, उसका अभ्यासपूर्वक ध्यान नहीं है। इसलिए उत्कृष्ट धर्माचरण के लिए संन्यासी का वेष लेने पर भी इसके चारित्र में दृढ़ता, उज्ज्वलता एवं स्थिरता नहीं हैं। इसी कारण यह इस भौतिक शक्ति को बहुत महत्वपूर्ण मान रहा है । इसे जरा आत्मशक्ति का चमत्कार बताना चाहिए । यह सोचकर उन्होंने रसकुप्पी अपने हाथ में ली और पास ही पड़े एक पत्थर पर पटक दी। कुप्पी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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