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________________ चारित्र की शोभा : ज्ञान और सुध्यान- २ २३६ दिया । नौका चली । समुद्र में तूफान आया, पानी का बहाव तेज हो गया । नौका डगमगाने लगी । पर वह तो बिल्कुल अनभिज्ञ और असावधान नाविक था । कुछ दूर जाकर नौका उलट गई और अकुशल यात्री जल में डूब गया । क्या आप बता सकते हैं, जो नौका तैराने वाली थी, वह डुबाने वाली कैसे बन गई ? दो कारण मुख्य थे – एक तो नाविक को नौका चलाने का ज्ञान बिलकुल न था; दूसरा, खतरों से सावधान रहने एवं उनका निवारण करने की शक्ति, एवं उत्साह तथा चिन्तनयुक्त पुरुषार्थ करने की तमन्ना न थी । यही बात भवसागर को पार करने वाली चारित्ररूपी नौका के सम्बन्ध में समझ लीजिए। आपने सुन रखा है, चारित्ररूपी नौका भवसागर से पार उतार देती है । वह तैराने वाली है । परन्तु यदि आप कुशल नाविक नहीं हैं, आप में नौका चलाने का ज्ञान नहीं है, और न ही खतरों से सावधान रहकर उनका निवारण करने की क्षमता है, न ही उत्साहपूर्वक चिन्तनयुक्त पुरुषार्थ करने की तमन्ना है तो वह चारित्र - नौका चलेगी अवश्य, किन्तु भवसागर में डुबाने वाली होगी । ज्ञान और सुध्यान के अभाव में उस नौका से आप संसार सागर से पार नहीं उतर सकते । यदि चारित्ररूपी नौका को संसार - समुद्र में डूबने से बचाना है तो उसके साथ सम्यग् - ज्ञान और सुध्यान का होना आवश्यक है । संसार में जितने भी महापुरुष हुए हैं, उन्होंने सदाचरण से पूर्व ज्ञान और सुध्यान को प्राप्त किया था । सदाचरण के साथ ज्ञान और सुध्यान न होता तो वे कदापि अपने मिशन में सफल न होते । केवल कुछ धार्मिक क्रियाओं के या रूढ़िगत आचरणों के होने से ही वे अपनी आत्मिक उत्क्रान्ति नहीं कर पाये; अपितु ज्ञान और सुध्यानपूर्वक विशुद्ध धर्माचरण से ही उनकी आत्मिक प्रगति हुई । इस्लाम धर्म के संस्थापक हजरत मुहम्मद साहब को इस्लाम धर्म के अनुसार विशुद्ध धर्माचरण करने से पहले दो तरह से ज्ञान मिला था - ( १ ) इल्मे सफीना और (२) इल्मेसीना । अर्थात् — एक तो 'किताबी ज्ञान' और दूसरा 'हार्दिक ज्ञान' । पहला ज्ञान उन्होंने कुरानेशरीफ के रूप में पाया, जबकि दूसरा ज्ञान-ध्यान के रूप में । ज्ञान को सक्रिय आचरण में लाने के लिए आत्मिक शक्ति तथा गुणों के चिन्तन-मननरूप में हार्दिक ज्ञान प्राप्त हुआ । इस प्रकार ज्ञान के साथ सुध्यान ( हार्दिक ज्ञान ) होने से उनका शुद्ध धर्माचरण जीवन में सक्रिय हुआ, दूसरों को भी उनके धर्माचरण से लाभ हुआ । मतलब यह है कि साधारण बुद्धि के ज्ञान से आगे की ओर जाने के लिए परमार्थ ज्ञान की आवश्यकता होती है, जो किताबों से या ग्रन्थों से नहीं मिलता, उसके लिए सुध्यान की आवश्यकता होती है । उसी से श्रेष्ठ तत्त्व की उपलब्धि होगी, हृदय स्वतः आलोकित हो उठेगा, आत्मा अपने 'स्व' के प्रकाश से प्रकाशित हो उठेगी, तब जो चारित्ररूप में धर्माचरण होगा, वह भौतिक जगत् से ऊपर उठकर सहज Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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