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चारित्र की शोभा : ज्ञान और सुध्यान-२
धर्मप्रेमी बन्धुओ !
कल मैंने आपके समक्ष इकतालीसवें जीवनसूत्र पर प्रकाश डाला था और बताया था-चारित्र क्या है, उसका महत्त्व क्या है, ज्ञान और सुध्यान से उसकी शोभा क्यों है ? यह युगल न हो तो चारित्र क्यों अशोभनीय बन जाता है ? आदि । आज भी मैं इसी जीवमसूत्र के अवशिष्ट पहलुओं पर विश्लेषण करूंगा, ताकि चारित्रमय जीवन को आप सांगोपांग समझ सकें । वैसे तो यह विषय काफी गहन है, इसके विषय में पूर्णरूप से विवेचन करने के लिए कई दिन चाहिए, परन्तु समय की सीमा में रहकर ही मैं इस जीवनसूत्र के सभी पहलुओं की झाँकी आपको करा देना चाहता हूँ। चारित्ररूपी नौका के नाविक में ज्ञान और सुध्यान न हो तो....
पिछले प्रवचन में मैं यह स्पष्ट कर चुका हूँ कि चारित्र की शोभा के लिए उसके साथ ज्ञान और सुध्यान दोनों क्यों आवश्यक हैं ? ज्ञान और सुध्यान के अभाव में अकेला चारित्र सुन्दर गति नहीं कर सकता, मोक्षमार्ग की ओर द्रुतगति से नहीं चल सकता। भवसागर को पार करने के लिए चारित्ररूपी नौका के साथ नौका चलाने का ज्ञान एवं उत्साही एवं बाहोश नाविक भी चाहिए। इसके बिना अकेली चारित्र नौका तैराने के बजाय भवसागर में डुबाने वाली बन जाती है। एक व्यावहारिक दृष्टान्त द्वारा इसे समझने का प्रयत्न करें
___ एक भोले-भाले मनुष्य ने कई बार गुरुजनों के मुख से सुन रखा था कि नौका तैराती है, समुद्र पार करा देती है। उसे आज जलमार्ग से उस पार एक महानगर में व्यापारार्थ जाना था। अतः वह समुद्रतट पर आया। वहाँ एक विशाल नौका पड़ी थी। अतः नौका पड़ी देखकर वह उसमें बैठने लगा। आसपास खड़े समझदार लोगों ने कहा-"क्या आप नौका चलाना जानते हैं ? आपमें नौका चलाते समय आने वाले खतरों से सावधान रहने और उनको निवारण करने की शक्ति, एवं पुरुषार्थ का उत्साह है या नहीं ?"
उसने कहा- "मुझे क्या आवश्यकता है, दूसरी चीजों की ? नौका पड़ी है, जीवन भर तो सुनते आये हैं, नौका से समुद्र पार किया जा सकता है, नौका तैराने वाली है।" उसने किसी की न मानी और अकेले ही उसमें बैठकर नौका को खोल
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