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________________ चारित्र को शोभा : ज्ञान और सुध्यान-१ २३७ लेना और इलाज कराना सार्थक होता है और इतनी बातों का ध्यान देने से उसका रोग भी मिट जाता है । यही हाल भवभ्रमणरूप रोग का है । संसार परिभ्रमण का रोगी बिना समझे-बूझे प्रत्येक क्रिया को चारित्र समझ कर करता जाये तो रोग का अन्त नहीं आयेगा। इसलिए वह स्वयं या गुरु आदि के उपदेश से स्वयं निदान करता है कि मेरे भवभ्रमण का रोग किन-किन कारणों से है ? यह रोग क्यों है ? कैसे उपायों के करने से मिटेगा? कौन-सी क्रियाएँ या व्रत, नियम, तप आदि इस रोग को मिटाने में आवश्यक हैं। इस प्रकार का ज्ञान हो जाने पर वह भवरोग निवारण की दवा लेने के साथ इस बात की सावधानी रखता है कि मुझे किन अतिचारों, दोषों, प्रमाद आदि से राग-द्वेष, कषाय, पापस्थान, विषय-वासना, आसक्ति आदि से बचना आवश्यक है। किनसे सावधान रहना चाहिए, तथा किस पथ्य का पालन करना चाहिए ? इस प्रकार भव रोग एवं चिकित्सा के विषय के ज्ञान, पथ्य, हित आदि के ध्यान के साथ जब भवरोगी चारित्र का उत्साहपूर्वक पालन करता है, या धर्मक्रिया करता है तो वह भवभ्रमण रोग को अवश्य ही मिटायेगा। ___आत्मा को प्रकाशमान करने के लिए जैसे दीपक को प्रकाशित करने के लिए सिर्फ अग्नि से उसे प्रज्वलित करने से काम नहीं चलता, उसके साथ दीपक में तेल और बत्ती भी आवश्यक होती है वैसे ही आत्मा को शुद्ध रूप में प्रकाशित करने के लिए सिर्फ चारित्र-दीप जलाने से काम नहीं चलता, उसके साथ ज्ञानरूपी तेल और ध्यानरूपी बत्ती की जरूरत है। तभी उस चारित्र से आत्मा सोलह कलाओं से प्रकाशित हो उठेगी। इसीलिए महर्षि गौतम ने कहा 'नाणं सुझाणं चरणस्स सोहा।' ज्ञान और सुध्यान चारित्र के साथ क्या-क्या काम करते हैं ? इनका क्या महत्त्व है ? इनके क्या-क्या लक्षण हैं ? आदि सब बातों पर मैं अगले प्रवचन में प्रकाश डालूंगा। 00 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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