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________________ २३६ आनन्द प्रवचन : भाग १० जब तुम्हारी इच्छा हो, तब पके फल तोड़कर खा लेना। राजा ने सोचा कि अन्धा देख नहीं सकेगा और पंगु पेड़ पर चढ़ नहीं सकेगा, इसलिए दोनों ही फल न खा सकेंगे। जब बगीचे में फल पकने लगे, तो उनकी इच्छा हुई-फल खाने की। पर खायें कैसे? पंगु फल को देखता तो था, पर तोड़े कैसे? अन्धा फल तक पहुंच तो सकता था, पर फल कहां हैं, यह पता कैसे लगे ? दोनों ही पशोपेश में थे, तभी एक प्रखरबुद्धिवाला चिन्तनशील व्यक्ति आया। उन दोनों ने उसके सामने अपनी समस्या रखी। उसने लंगड़े से कहा- "तू चढ़ जा अन्धे के कंधों पर और अन्धा तेरे कहे अनुसार पके फल तक चल लेगा, बस तभी तू फल तोड़ लेना।" इस चिन्तनशील व्यक्ति के द्वारा बताई गई युक्ति से दोनों ने काम लिया । मधुर फल तोड़े और खाये । यह एक रूपक है । ज्ञानविहीन चारित्र अन्धा है, वह चल तो सकता है, पर मोक्ष-फल कैसे और कहाँ मिलेंगे, यह पता नहीं। चारित्र-विहीन ज्ञान पंगु है, वह मोक्षफल को जान देख सकता है, पर तोड़ कर प्राप्त नहीं कर सकता । ध्यान विहीन ज्ञान और चारित्र दोनों मोक्षफल पाने की युक्ति का चिन्तन नहीं कर पाते, न उत्साहित होते । अतः ध्यान जब ज्ञान और चारित्र को उपाय सुझाता है, उत्साहित और प्रेरित करता है, तभी ये दोनों कृतकार्य हो पाते हैं और मोक्षफल को पाने में सक्षम हो सकते हैं। त्रिविध तापनाश के लिए तीनों आवश्यक आप सब त्रिविधताप (आधिभौतिक, आधिदैविक, आध्यात्मिक) से छुटकारा पाकर सुख-शान्ति एवं समाधि चाहते हैं। समाधि के लिए केवल चारित्र (क्रिया) से काम नहीं चलता, उसके साथ ज्ञान और सुध्यान दोनों का होना अनिवार्य है। निष्कर्ष यह है कि सम्यक्चारित्र के साथ सम्यग्ज्ञान और सुध्यानरूपी त्रिवेणी में स्नान कर लेने पर मनुष्य को शान्ति, पुष्टि और सन्तुष्टि हो सकती है। भवरोग निवारणार्थ चारित्र के साथ ज्ञान एवं सुध्यान आवश्यक मनुष्य बीमार होता है, तब वह अपनी मर्जी से कोई भी दवा ले ले तो उसका क्या परिणाम आता है ? वह रोगी खतरे में पड़ जायेगा, कभी-कभी तो एक रोग की दवा दूसरे रोग के निवारणार्थ ले लेने से रोगी मृत्यु के मुख में पहुँच जाता है । इस लिए रोग का निवारण करने से पहले रोगी अगर स्वयं नहीं जानता तो चिकित्सक से पहले शरीर की जाँच करवाकर रोग का निदान कराया जाता है, तत्पश्चात् रोगी को दवा देने के साथ पथ्य, परहेज आदि सावधानी रखने तथा इस दवा से रोग बढ़ता है या घटता है, इसका ध्यान रखने की हिदायत तथा दवा नियमित लेने से रोग शीघ्र ही मिट जायेगा, इस प्रकार की उत्साहप्रद प्रेरणा दी जाती है। तभी उसका दवा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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