________________
चारित्र की शोभा : ज्ञान और सुध्यान-१ २३१ मोती जैसा चमकीला था, वैसा ही आबदार निकला । राजपरिवार का परिचय सिद्धिचन्द्रमुनि के चारित्ररूपी पौधे को कुछ भी क्षति न पहुंचा सका। इस अग्निपरीक्षा में उत्तीर्ण होने के कारण गुरु भानुचन्द्रजी हृदय से सन्तुष्ट थे।
सम्राट अकबर के देहान्त के बाद सलीम 'जहाँगीर' नाम धारण करके सम्राट बना । उसके साथ सिद्धिचन्द्र का अकबर की अपेक्षा भी गाढ़ सम्पर्क था। ज्यों-ज्यों यौवन खिलता गया, त्यों-त्यों सौन्दर्य और पाण्डित्य भी विकसित होता गया । वेश वैरागी का, काया कामदेव की, वय यौवन की एवं आचरण साधु का था । जहाँगीर
और नूरजहाँ दोनों इस युवक साधु को देखकर प्रसन्न होते और आश्चर्य में डूब जाते थे । पहचान वर्षों पुरानी होने पर भी विलासभोगी सम्राट उनके दिल को पहचान न सका। सौन्दर्य रसिक सम्राट का दिल किसी भी तरह न मानता था कि इस उम्र में भी कोई त्यागी, वैरागी और चारित्रधारक हो सकता है। उसकी आंखों में चारों ओर भोगवासना का ही प्रतिबिम्ब नजर आता था । परन्तु इस बालयोगी को न तो अपने सौन्दर्य का गर्व था, न सौन्दर्यभूषित देह का मोह था। वह देहासक्ति से ऊपर उठकर आत्मा को ज्ञानादि गुणों से विभूषित कर रहा था।
एक ओर था सौन्दर्योपासक सम्राट तो दूसरी ओर था चारित्रोपासक योगी। दोनों की दो राहें थीं, दोनों के स्थान भी पृथक्-पृथक थे, एक का स्थान सिंहासन पर था, तो दूसरे का था सर्वाधार भूमि पर ! पर दोनों की बाल-मैत्री थी। मगर आखिर तो सम्राट् भोगपरायण था, अतः अपनी दृष्टि से ही योगीराज का मूल्यांकन करता था। वह कभी-कभी अपनी बेगम नूरजहाँ से कहता- "देखो, इस योगी के रंग, न जाने इसे क्या सूझा ? इतनी मनोहर सुकुमार काया को कष्ट की भट्टी में झोंक रहा है ! ऐसी उम्र में और ऐसी सुन्दर काया में संयम, मुझे तो असम्भव लगता है। किसी भी उपाय से इसे देहदमन की राह से मोड़ना चाहिए। मेरा मन इसे देखकर बेचैन हो उठता है।"
दिन पर दिन बीतते जा रहे थे। सम्राट् योगी को जिस दिन नहीं देखता, उस दिन उदास हो उठता था । परन्तु यह योगी जब धर्मकथा सुनाकर विदा होता, उसके बाद सम्राट के हृदय में रह-रह कर ऐसे विचार उठा करते, उसके मन को उद्वेलित कर देते थे।
सम्राट् जहाँगीर जहाँ न्यायप्रिय था, वहाँ हठी और उतावला भी था। अपनी बात न मानने पर वह नाराज भी बहुत जल्दी हो जाता था। परन्तु सिद्धिचन्द्र मुनि के विषय में जो विचार उठते थे, सम्राट ने वे चिरकाल तक मन में ही संचित रखे।
एक दिन चिरसंचित विचार सम्राट के मन में उफन उठे। उस दिन के धर्मोपदेश से सम्राट् और बेगम दोनों ही खुश थे। जब वे जाने को तैयार हुए तो बादशाह ने सोचा--आज तो इन्हें मन की बात कह देनी चाहिए । अतः वे बोले
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org