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आनन्द प्रवचन : भाग १०
सिद्धिचन्द्र अभी बालकमुनि थे । उनका जैसा आकर्षक रूप था वैसी ही उनकी तेजस्वी प्रखर बुद्धि थी । उनको अपने गुरुदेव के बार-बार बादशाह के पास जाने का कुतूहल होता था । बालसुलभ जिज्ञासा से वह कई बार अपने गुरुदेव से पूछा करते थे कि बादशाह कैसे हैं ? वह कैसे-कैसे प्रश्न पूछते हैं ? आप क्या उत्तर देते हैं ? आदि । गुरुदेव से बादशाह के साथ हुई धर्मचर्चा सुन-सुनकर बालकमुनि सिद्धिचन्द्र की भी उनके साथ जाने की इच्छा होती थी । परन्तु उपाध्यायश्री सोचते थे कि अभी इसकी कच्ची उम्र है, इसके चारित्र का पौधा अभी बहुत ही छोटा और कोमल है, वह ज्ञान और ध्यान से परिपक्व न हो जाय, तब तक इसे राजदरबार में न ले जाना उचित है । वे इस खतरे से भली-भांति परिचित थे कि राजदरबार की मोहिनी का जादू इसके अपरिपक्व मस्तिष्क में लग गया तो चारित्र (योग) साधना अधूरी रह जाएगी, भोगों में मन विह्वल हो जाएगा !
एक-दो वर्ष तक शास्त्रों एवं सिद्धान्तों का, तथा जैनदर्शन का गम्भीर अध्ययन कर लेने, साथ ही धर्मध्यान की साधना में प्रगति कर लेने के बाद एक दिन उपाध्यायश्री भानुचन्द्रजी अपने बालक शिष्य श्री सिद्धिचन्द्रजी को अपने साथ अकबर के राजमहल में ले गये । सम्राट अकबर तो चकित था, सौन्दर्य के अवतार इस बालकमुनि को त्यागमार्ग के उपासक तथा वैराग्यपथ के यात्री के रूप में देखकर ! सम्राट बालकमुनि को टकटकी लगाकर देखता रहा, सोचने लगा- 'वाह ! कैसा गजब का रूप है । ऐसा रूप का अवतार तो राजदरबार में ही शोभा दे सकता है ।' बादशाह ने अवसर देखकर सिद्धिचन्द्रजी से बात की तो काया की तरह उनकी तेजस्वी बुद्धि से प्रादुर्भूत वाणी से भी सौन्दर्य और माधुर्य का झरना बहने लगा । अकबर उनसे अत्यन्त प्रभावित, आकर्षित एवं मुग्ध हो उठा । गुरु-शिष्य जब राजमहल से विदा होने लगे तो सम्राट अकबर ने भानुचन्द्रजी से कहा - "महाराजश्री ! अपने बालक- शिष्य को खूब पढ़ाना, यह महान विद्वान् बनेगा और अपना एवं गुरु का नाम रोशन करेगा । इन्हें जो भी अध्ययन कराना हो, उसका प्रबन्ध शाही दरबार से हो जाएगा । और आप मेरी बात मानें तो मेरे राजकुमार उस्तादों से पढ़ते हैं, उनके साथ ही आपके शिष्य पढ़ लें ।"
गुरु ने बादशाह की बात मान ली। मुनि सिद्धिचन्द्रजी को मनचाहा अवसर मिल गया अपनी ज्ञान-पिपासा शान्त करने का । राजकुमार सलीम आदि के साथ उन्होंने फारसी भाषा का प्रवुर ज्ञान अर्जित कर लिया । राजकुमार सलीम आदि का परिचय भी प्रगाढ़ हो गया । यद्यपि मुनि सिद्धिचन्द्रजी का सिद्धान्तों एवं तत्त्वों का ज्ञान अब परिपक्व हो गया था, धर्म-ध्यान की साधना के दौरान वे अपनी प्रखर बुद्धि से उन पर चिन्तन, मनन और अनुप्रेक्षण भी करते थे, फिर भी उनकी अवस्था युवा थी, शारीरिक सौन्दर्य भी आकर्षक था, इसलिए गुरुदेव को चिन्ता थी कि त्याग - मार्ग का पथिक शिष्य कहीं राजसम्पर्क से भोगमार्ग का राही न बन जाय । परन्तु
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