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________________ २३२ आनन्द प्रवचन : भाग १० "आज तो आपने कमाल ही कर दिया। पर जाने की इतनी उतावल क्यों है ? बात का ऐसा रंग तो कभी-कभी जमता है । कुछ देर और रुक जाइए।" __युवामुनि ने कहा- "बादशाह ! जिस समय जो कार्य करना है, उसे उसी समय कर लेना चाहिए। हमें अपने धर्मकार्य का हिसाब अपने मन के मालिक को देना होता है । प्रमाद करेंगे तो फर्ज चूक जाएंगे। उसमें भी हमारा मार्ग संयमी साधुजीवन का है। उसके लिए तो सदा जागृत रहना चाहिए; अन्यथा इसमें दोष प्रविष्ट होते देर नहीं लगती। आपसे फिर मिलेंगे ही, तो बात करेंगे। आज तो समय हो गया है।" . बादशाह खुश होकर रुकने की प्रार्थना करे और उसे इस प्रकार का रूखा उत्तर देकर ठुकरा दे, यह उसके लिए नया ही अनुभव था । मुनि के उत्तर से बादशाह को आघात-सा महसूस हुआ, मगर उसे आज अपनी बात कहे बिना चैन नहीं पड़ रही थी। और आक्रोशवश बात करने में आनन्द नहीं होता। अतः जरा चुप रहकर बादशाह ने मुनि से कहा-"आज आप से कुछ बात करने की इच्छा थी आपको कुछ देर भले होती हो, रुक जाएँ तो अच्छा रहेगा।" मुनि बादशाह के दिल को नहीं समझे, फिर भी रुक गये। बादशाह ने बहुत संकोच के साथ पूछा-“भला आपकी उम्र कितनी होगी ?" मुनि बोले-"पच्चीस वर्ष की।" उन्हें बादशाह के प्रश्न का रहस्य समझ में न आया। बादशाह- "इस जवानी में ऐसे कठोर त्याग और संयम (चारित्र) को स्वीकार करने की आपको क्यों जरूरत पड़ी? ये सब तो बुढ़ापे में शोभा देते हैं । यह समय तो भोग-विलास और मौज-शौक का है ! कुदरत ने आपको ऐसे सौन्दर्य और यौवन की देन दी है। इसका आनन्द लूट लें। जवानी जाने के बाद फिर लौट कर नहीं आएगी।" मुनि को बादशाह की अजीबोगरीब बातें सुनकर आश्चर्य हुआ। उन्होंने कहा-"शाहंशाह ! यह तो अपनी-अपनी रुचि की बात है । किसी को भोग अच्छा लगता है, किसी को योग । अंततः सब कुछ मन की इच्छा पर निर्भर है। अच्छा मन मनुष्य को अच्छा बनाता है, खराब मन खराब ! हमने अपने उत्तम जीवन निर्माण के लिए यह चारित्र का पथ अपनाया है, फिर इसमें छोटी उम्र क्या और बड़ी उम्र क्या ? जब से जागे, तभी से सबेरा है।" बादशाह ने मुनि की सारी बातों को काटते हुए संक्षेप में कहा- "हमें तो आपकी ये बातें बाहियात लगती हैं । जवानी को यों कुचल देने और काया को कुम्हला देने का क्या अर्थ है ? समय पर ही सब काम अच्छे होते हैं । भोगों की उम्र में आपका कष्टकर योग स्वीकार करना अकाल में आम पकाने की मुराद-सा लगता है । अतः यह सब छोड़-छाड़कर आप कुछ दिन जिन्दगी की मौज लूट लें। हमारी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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