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२२२ आनन्द प्रवचन : भाग १०
चारित्र क्या है ?
इसी प्रसंग में चारित्र का अर्थ भी समझ लेना जरूरी है । चारित्र के अन्तरंग और बहिरंग के भेद से दो रूप हैं - निश्चयचारित्र और व्यवहारचारित्र । साधक के जीवन में दोनों का होना आवश्यक है । निश्चयचारित्र का लक्षण है
'स्वरूपे चरणं चारित्रं, स्वसमयप्रवृत्तिरित्यर्थः । तदेव वस्तुस्वभावाद्धर्मः ।'
' स्वरूप में — यानी अपने में, ज्ञानादि स्वभाव में निरन्तर चरण — रमण करना चारित्र है । इसका अर्थ है - स्वसमय में प्रवृत्ति करना । यही वस्तु (आत्मा) का स्वभाव होने से धर्म है ।
व्यवहारचारित्र का लक्षण रत्नकरण्ड श्रावकाचार में इस प्रकार किया
गया है
हिसानृतचौर्येभ्यो, मैथुन सेवापरिग्रहाभ्यां च ।
पापप्रणालिकाभ्यो विरतिः संज्ञस्य चारित्रम् ॥
'हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन और परिग्रह, इन पाँच महापापों की प्रणालियों से विरत होना चारित्र है ।
एक आचार्य ने व्यवहारचारित्र का लक्षण इस प्रकार किया है“असुहादो विणिवित्ति, सुहे पवित्ति य जाण चारितं ।"
'अशुभ से निवृत्ति और शुभ में प्रवृत्ति को चारित्र समझो ।' अथवा 'चरति याति तेनो हितप्राप्तिम् अहितनिवारणं चेति चारित्रम् ।' 'जिससे साधक हित को प्राप्त करता है और अहित का निवारण करता है, उसे भी चारित्र कहते हैं ।
एक परिभाषा के अनुसार चारित्र उसे भी कहते हैं— जो आठ कर्मों को चरता है, भक्षण कर जाता है । या कर्मों का चय ( संचय) जिससे रिक्त (खाली) हो जाता है, उसे भी चारित्र कहते हैं ।
जो भी हो, चारित्र के इन लक्षणों पर विचार करने से एक बात तो अवश्य स्पष्ट हो जाती है कि धन, सत्ता, स्वास्थ्य आदि सबकी अपेक्षा चारित्र का उच्च स्थान है । भारतीय जनजीवन में धन और सत्ता की परवाह न करके चारित्र की रक्षा की जाती थी । राजा-महाराजा या बड़े से बड़े सम्राट, धनकुबेर या चक्रवर्ती भी चारित्रवान् के चरणों में मस्तक झुकाते और उनसे जीवन की प्रेरणा लेते थे ।
सेठ सुदर्शन ने भय और प्रलोभनों में न फँसकर अपने चारित्र को सुरक्षित रखा था, क्योंकि वे चारित्र को जीवन का अमूल्य धन समझते थे । धन चला जाय, स्वास्थ्य चला जाय अथवा और कोई साधन चला जाय तो कालान्तर में फिर भी आ सकता है, लेकिन चारित्र नष्ट हो जाय तो फिर पाना कठिन है ।
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