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________________ चारित्र की शोभा : ज्ञान और सुध्यान-१ २२३ नमि राजर्षि दीक्षा लेने की और उच्च चारित्र अंगीकार करने की तैयारी कर रहे थे, उसी दौरान इन्द्र ब्राह्मण का रूप बनाकर उनकी परीक्षा लेने हेतु आता है। वह उन्हें राजसत्ता, धन तथा सुख-सामग्री आदि के अनेक प्रलोभन देता है, लेकिन नमिराजर्षि अपने उच्च चारित्र ग्रहण करने के संकल्प पर दृढ़ रहे, इन्द्र को उन्होंने अकाट्य युक्तियों और तर्कों द्वारा अपनी बात समझाकर निरुत्तर कर दिया। । वास्तव में भारतीय संस्कृति में चारित्र के कारण ही व्यक्ति पूजनीय, वन्दनीय माना जाता था। जहाँ चारित्र नहीं होता, वहाँ बड़े से बड़े सत्ताधारी या शास्त्रज्ञानी को भारतीयों ने पूज्य नहीं माना । कोरा ज्ञान या कोरा दर्शन तार नहीं सकता, चारित्र ही तार सकता है। सम्यक्चारित्र ही मानव-जीवन की अमूल्य सम्पत्ति है, जिसे पाकर वह जन्म-जन्मान्तर के कर्मावरणों को नष्ट करके आत्मा को शुद्ध, बुद्ध, निरंजन बना सकता है । आइए, अब हम विचार करें कि ऐसे महत्वपूर्ण चारित्र की शोभा किसमें है ? चारित्र की शोभा : कब, क्यों और किसमें ? आप मारवाड़ी सद्गृहस्थ हैं। मैं आपसे एक प्रश्न पूछ लूं--यदि कोई व्यक्ति सिर पर तो पगड़ी बाँध ले, किन्तु धोती और कमीज न पहने तो क्या, उसके सिर पर बांधी हुई कोरी पगड़ी शोभा देगी? आप कहेंगे नहीं। क्योंकि आप जानते हैं कि जिसके शरीर पर धोती और कमीज न हो और केवल पगड़ी बाँध लेगा तो सभ्य समाज में वह हंसी का पात्र समझा जायेगा, लोग उसे मूर्ख और पागल समझेंगे। ठीक इसी प्रकार चारित्र के नाम पर कुछ धर्मक्रियाएँ तो अपना ले, जो पगड़ी के समान हैं, किन्तु उसके साथ ज्ञानरूपी धोती या अधोवस्त्र न हो, और न ही घ्यानरूपी कमीज हो तो क्या उसकी कोरी चारित्ररूपी पगड़ी शोभा देगी? क्या वह हास्यास्पद नहीं माना जाएगा? परन्तु आज धार्मिक जगत में यह धांधली बहुत चल रही है। लोग क्रियाकाण्डों को तो बहुत महत्त्व देने लगे हैं, परन्तु उनके साथ ज्ञान और सुध्यान की जरूरत नहीं समझते । वे यह नहीं समझते कि अमुक धर्मक्रिया क्यों की जाती है ? वह चारित्र की रक्षा के लिए आवश्यक है या नहीं ? अथवा रूढ़ि के तौर पर ही उसका पालन किया जाता है ? चारित्र का आचरण किस प्रकार करना चाहिए ? इस प्रकार के ज्ञान और उस ज्ञान को सुदृढ़ करने और आचरण में प्रेरित करने के लिए सुध्यान की वे कोई जरूरत नहीं समझते । फल यह होता है कि वे चारित्र के नाम पर बिना समझे-बूझे क्रियाओं की अंधी दौड़ लगाते रहते हैं, पर अपने लक्ष्य को नहीं प्राप्त कर पाते। चारित्र का जो वास्तविक फल-मोक्ष-प्राप्ति या कर्मक्षय है, उससे वे वंचित रह जाते हैं । वर्षों तक क्रियाकाण्ड करने पर भी वे जब कुछ भी प्राप्त नहीं कर पाते और साधना के नाम पर कुछ भौतिक उपलब्धियाँ प्राप्त कर लेते हैं, तब ऐसा प्रतीत होता है कि अमृत के सागर में गये अवश्य लेकिन वहाँ से मोतियों के बदले कंकर ही उठा लाए। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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