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________________ चारित्र को शोभा : ज्ञान और सुध्यान-१ २२१ सकता है ? कदापि नहीं। जब तक वह यात्री अहमदनगर जाने के लिए कदम नहीं उठाएगा, गति नहीं करेगा या गतिशील रेल-मोटर में बैठेगा नहीं, तब तक वह अहमदनगर नहीं पहुंच सकेगा। ठीक इसी प्रकार मोक्ष का यात्री मोक्षमार्ग की जानकारी प्राप्त कर ले, मोक्षमार्ग के प्रति श्रद्धा भी कर ले, लेकिन मोक्षपुर पहुंचने के लिए सम्यक्चारित्र-धर्माचरण या धर्मक्रिया में गति न करे-आचरण न करे, तब तक वह मोक्षपुर कैसे पहुंच सकेगा? यही बात एक आचार्य ने कही है क्रियाविरहितं हन्त ! ज्ञानमात्रमनर्थकम् । गति विना पयज्ञोऽपि नाप्नोति पुरमीप्सितम् ॥ -हा ! क्रिया (चारित्र) से रहित कोरा ज्ञान निरर्थक है । मार्ग का जानकार होने पर भी जब तक वह पैरों से गमन नहीं करता, तब तक अभीष्ट नगर को नहीं पहुँच सकता। चारित्र ज्ञानरूपी भोजन के लिए विटामिन (पोषकतत्त्व) है। ज्ञानरूपी भोजन में चारित्ररूपी विटामिन न हो तो वह ज्ञान न तो शरीर को पुष्ट करेगा और न ही पचेगा। बल्कि ज्ञान के अहंकार के रूप में ज्ञान का अजीर्ण हो जाएगा। किसी व्यक्ति को षद्रव्यों, नौ तत्त्वों या आत्मा का गहन ज्ञान है, वह भगवती सूत्र और प्रज्ञापना सूत्र के गूढ़ रहस्यों को खोल सकता है, समयसार का पुर्जा-पुर्जा खोलकर उसकी व्याख्या कर सकता है, लेकिन उसने जीवन में अहिंसा, सत्य आदि व्रतों का स्वीकार नहीं किया है, वह असत्य बोलता है, व्यापार-धन्धे में बेईमानी करता है, ब्याज और गिरवीं के धन्धे में मानवों का शोषण करता है, तो उसका वह ज्ञान विटामिनरहित भोजन जैसा या औंधे घड़े पर गिरे हुए पानी जैसा है, वह उसे क्या लाभ पहुंचा सकता है ? ज्ञान का लाभ तो उसे तभी मिल सकता है, जब वह सम्यक्चारित्र को अपनाकर सत्य-अहिंसादि धर्म का पालन करे। विशेषावश्वक भाष्य में कहा है सुबहुं पि अहीयं कि काही चरणविप्पहीणस्स । सम्यक्चारित्र से विहीन व्यक्ति को अनेक शास्त्रों का किया हुआ अध्ययन क्या लाभ पहुंचा सकता है ? उसकी आत्मा की वह सुरक्षा नहीं कर सकता और न ही कर्मक्षय कर सकता है । बल्कि आचरणहीन कोरा शास्त्रों का ज्ञान गधे की पीठ पर लदे हुए चन्दन के गट्ठर के समान केवल भारवहन मात्र है। वह शास्त्र-ज्ञान केवल उसके मस्तिष्क में बोझ रूप है । इसलिए सम्यक्चारित्र की महत्ता से कथमपि इन्कार नहीं किया जा सकता। चारित्र सम्यक् तभी होता है, जब उसके साथ सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान हो, तथापि सम्यक्चारित्र को अपनाये बिना मोक्षसाधक के लिए कोई चारा नहीं है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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