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आनन्द प्रवचन : भाग १०
चारित्र को अपनाये बिना धर्म पंगु है । इसीलिए एक जैनाचार्य ने कहा है- 'चारितं खु धम्मो' धर्म वास्तव में चारित्र ही है । यद्यपि शास्त्र में श्रुतधर्म और चारित्रधर्म ये दो भेद बताकर श्रुतधर्म को भी धर्म का प्रकार माना है । परन्तु श्रुतधर्म में शास्त्रों द्वारा या 'श्रुतज्ञान द्वारा धर्म का ज्ञान प्राप्त करना और उस पर श्रद्धा करना होता है । अतः वह सब मानसिक है, अव्यक्त है, धर्म का व्यक्त रूप नहीं । व्यक्त रूप तो चारित्र ही है ।
मैं आपसे पूछता हूँ कि कोई व्यक्ति शास्त्रों का बहुत ही स्वाध्याय करता हो, जिन - वचनों और वीतरागप्ररूपित तत्त्वों पर श्रद्धा रखता हो, लेकिन उनके बताये हुए धर्म को आचरण में न लाता हो, यहाँ तक कि धर्म के विपरीत आचरण करता हो, दुर्व्यसनों में लिपटा हो तो उसका ज्ञान और दर्शन किस काम का ? उसका श्रुतधर्म भी आचरण में लाये बिना - चारित्र - पालन के बिना - निष्फल है । आखिर धर्म को जीवन में उतारे बिना सम्यक्चारित्र के माध्यम से उसका पालन किये बिना व्यक्ति धर्मपालन का सुफल भी कैसे प्राप्त कर सकता है ?
अग्नि को जान लेने पर कि यह रोटी सेक देती है, ठण्ड मिटा देती है, इस प्रकार का विश्वास कर लेने मात्र से वह अपना फल नहीं दे देती है । अर्थात् — वह आग रोटी नहीं सेक देती और न ही ठण्ड मिटा देती है। अग्नि का सक्रिय उपयोग करने वाला व्यक्ति ही अग्नि से इस प्रकार का फल प्राप्त कर सकता है । इसी प्रकार धर्म का या साधना का सुफल भी साधक तभी प्राप्त कर सकता है, जब उस धर्म का आचरण करे, जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में धर्म का पालन करे । धर्म का सम्यक् प्रकार से आचरण करना ही सम्यक्चारित्र है ।
सम्यक्चारित्र को स्वीकार करने पर ही धर्मसाधना का श्रीगणेश होता है । शास्त्रीय दृष्टि से देखा जाय तो सम्यक्हष्टि का गुणस्थान चौथा है, जबकि सम्यक्दर्शन के साथ स्थूल देशचारित्र का ग्रहण करने पर देशविरति नामक पंचम गुणस्थान प्राप्त होता है । भले ही वह पंचम गुणस्थानवर्ती गृहस्थ साधक चारित्राचारित्री हो, किन्तु यह तो निःसन्देह कहा जा सकता है कि सम्यग्दृष्टि के गुणस्थान से सम्यक्चारित्री का गुणस्थान ऊँचा है । अतः साधना - आत्मविकास की साधना की दृष्टि से चारित्र का अपनाना आवश्यक है । सम्यक्चारित्र को अपनाये बिना कोई भी साधक उच्च गुणस्थान पर आरूढ़ नहीं हो सकता । जितने भी वीतराग या केवलज्ञानी हुए हैं, वे सम्यक् चारित्र को अपनाने पर ही हुए हैं । भरत चक्रवर्ती आदि, जिन्होंने व्यवहारचारित्र के बाह्य अंगों का भले ही स्वीकार न किया हो, स्वरूपरमणरूप निश्चयचारित्र तो इनमें अनिवार्य रूप से आ ही गया था । इसलिए वीतरागता या कर्मक्षय के लिए सम्यक्चारित्र स्वीकार करना जरूरी है ।
मरुदेवी माता या
एक यात्री है, उसे मार्ग की जानकारी है और यह विश्वास भी है कि यही मार्ग अहमदनगर को जाता है, किन्तु क्या इतने मात्र से वह यात्री अहमदनगर पहुँच
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