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________________ २१६ आनन्द प्रवचन : भाग १० " स्व-स्वरूप में चित्त का निरोध करना समाधि है, और बाह्य तथा आभ्यन्तर जल्प (वचनोच्चारण) के त्याग स्वरूप योग है । " समाधियोग में स्थित प्रशम-साधक बाहर से वाणी का प्रयोग बन्द कर देता है, वैसे ही अन्दर से चिन्तन बन्द कर देता है, और एकमात्र स्व-स्वरूप में, शुद्धोपयोग में या उत्तम परिणामों में चित्त को स्थिर कर देता है, उस अवस्था में ध्येय और ध्याता दोनों का एकीकरणरूप समरसीभाव ( तादाम्य) हो जाता है । आत्मा के सम्बन्ध में धर्मध्यान और शुक्लध्यान द्वारा वीतरागभाव से वह चिन्तन करता है । प्रशम-साधक जब अपनी परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाता है तभी उसका प्रशम शोभायमान होता है । महर्षि गौतम ने इसी उद्देश्य से इस जीवनसूत्र में बताया है। कि प्रशम की शोभा, उसकी चमक-दमक समाधियोग में है । जब समाधियोग प्रशमसाधक के जीवन में आ जाता है तो उसका प्रशम सोलह कलाओं से खिल उठता है । समाधियोग आ जाने पर प्रशम-साधक अपने प्रशम में इतना अचल - अटल हो जाता है, कि चाहे मरणान्तक उपसर्ग (कष्ट) आ जाए, जीवन की बाजी लगानी पड़े, ऐसा विकट संकट आ जाए, तब भी वह अपने प्रशम से नहीं डिगता । एक प्राचीन उदाहरण लीजिए । सुव्रत ने ज्योंही यौवनवय में पदार्पण किया, उसके जीवन ने नया मोड़ लिया । एक त्याग - वैराग्यसम्पन्न प्रशममूर्ति मुनिवर का उपदेश सुना और उसे अशान्ति के सागर में डूबे हुए संसार से विरक्ति हो गई। उसने मन ही मन निश्चय कर लिया कि वह अपने माता-पिता से अनुमति प्राप्त करके प्रशमरस - सिन्धु में अवगान कराने वाली भागवती दीक्षा अंगीकार करेगा । वह सुदर्शनपुर निवासी सुभाग गृहपति का पुत्र था । उसकी माता का नाम सुजसा था । दोनों निष्ठावान श्रावकव्रतधारी थे । इसलिए बचपन से ही सुव्रत को माता-पिता से धार्मिक संस्कार मिले थे । अब साधु बन जाने के बाद थोड़े ही वर्षों में उसकी प्रशम-साधना चमक उठी । वह गीतार्थं तो हो ही गया था । समतावान् भी इतना हो गया कि वह प्रत्येक प्रवृत्ति समत्व की दिशा में ही करता था। उसके गुरुदेव ने उसके धैर्य, गाम्भीर्य, समत्व एवं प्रशम की उत्कट साधना देखकर उसे एकल विहार प्रतिमा अंगीकार करने की अनुमति दे दी । उसकी समाधियोगयुक्त प्रशमनिष्ठा देखकर देवताओं की परिषद में सौधर्मेन्द्र ने उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की कि " सुव्रत मुनि को कोई भी समाधियोग से विचलित नहीं कर सकता ।" यह सुनकर दो देवों ने इस बात पर विश्वास नहीं किया । उन्होंने सुव्रत मुनि की परीक्षा लेने की ठानी । उन्होंने पहले तो अनुकूल उपसर्ग किये । एक देव विप्र वेष में उनके पास आकर बोला- “धन्य है सुव्रत अनगार आपको ! अपने कौमार्यवय में ब्रह्मचर्यपूर्वक दीक्षा अंगीकार की, विवाह न किया ।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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