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प्रशम की शोभा : समाधियोग-२
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अनिच्छन् कर्मवैषम्यं ब्रह्मांशेन समं जगत् ।
आस्माऽभेदेन यः पश्येदसो मोक्षगमी शमी ॥२॥ अर्थात्-प्रशमनिष्ठ साधक जगत के जीवों की कर्मवैषम्य के कारण जो विषमता या भिन्नता है, उसे नहीं चाहता, इसी कारण वह चैतन्य की दृष्टि से विश्व की समस्त आत्माओं को अभेदभाव से देखता है। इसलिए वह प्रशमनिष्ठ साधक मोक्षगामी होता है।
अरुरुक्षर्मनिर्योगं श्रयन बाह्यक्रियामपि ।
योगारूढः शमादेव, शुद्ध यत्यन्तर्गतक्रियः ॥३॥ योगारोहण करने का इच्छुक मुनि बाह्य-क्रिया करता हुआ तथा अन्तर्गत क्रिया करता हुआ योगारूढ़ मुनि प्रशम (विषय-कषाय का शमन) से ही शुद्ध (पवित्रात्मा) हो जाता है।
ज्ञानध्यानतपःशीलसम्यक्त्वसहितोऽप्यहो।
तं नाप्नोति गुणं साधुर्यमाप्नोति शमान्वितः ॥५॥ ___ अहो, ज्ञान, ध्यान, तप, शील, सम्यग्दर्शन से युक्त साधु भी उस गुण को नहीं प्राप्त कर पाता, जिसे एक प्रशमयुक्त व्यक्ति प्रशम से प्राप्त कर लेता है ।
शमसूक्तसुधासिक्त येषां नक्तदिनं मनः ।
कदापि ते न दह्यन्ते रागोरगविषोमिभिः ॥७॥ जिनका मन शमसूक्तरूपी अमृत से रात-दिन सींचा रहता है, वे कदापि राग-द्वेष रूपी सर्प के विष की ऊर्मियों से नहीं जलते ।।
वास्तव में प्रशमनिष्ठ साधक की शक्ति इतनी अधिक बढ़ जाती है कि उसे प्रशम के समक्ष सारे संसार का राज्य भी तुच्छ प्रतीत होता है। उसके सामने चाहे जितने प्रलोभन हों, भय हों, आकर्षण हों, वह अपने प्रशम-पथ से कदापि च्युत नहीं होगा।
प्रशमनिष्ठ की परीक्षा : समाधियोग से प्रशमनिष्ठ व्यक्ति की परीक्षा भी कई बार होती है । प्रशमनिष्ठ की उत्तीर्णता का मापदण्ड समाधियोग है । अगर प्रशमनिष्ठ व्यक्ति समाधियोग में टिका रहता है, समाधियोग से विचलित नहीं होता, तो समझना चाहिए कि वह अपनी परीक्षा में उत्तीर्ण है।
प्रशम-साधक व्यक्ति का मन जब शुद्धोपयोग या शुभोपयोग में एकाग्र एवं एकरूप हो जाता है, तब समझना चाहिए कि वह समाधियोग में स्थित हो गया है। समाधियोग का अर्थ स्याद्वादमंजरी में बहुत ही उचित किया गया है
स्वरूपे चित्तनिरोधलक्षणं समाधिः, बहिरन्तजंल्पत्यागलक्षणः योगः ।
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