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आनन्द प्रवचन : भाग १०
अनुग्रह के बिना कैसे प्राप्त होगा ? अभी तक का जीवन निरर्थक गया। अब आपकी कपा हो जाय तो इस तप्त मानस पर शीतलता के कुछ छींटे पड़ें।"
___ रैक्व—"निरर्थक तो नहीं गया है, राजन् ! पर अभी तक आपने जो भी दान, पुण्य, प्रजा की सेवा या कार्य किये, वे सब प्रशंसा की भावना से किये और आपको उन परोपकार के कार्यों से यश, प्रशंसा एवं आदर मिला भी है।"
जनश्रुतिनप की जिज्ञासा अब तीव्र हो उठी, कि मामूली-सा गाड़ी वाला महात्मा रैक्व, इतना बड़ा ज्ञानी एवं दार्शनिक है। अतः प्रश्न किया-"इतना सब कुछ करके भी आत्मा को शान्ति अभी तक नहीं मिली। मुझे आत्म-शान्ति, तृप्ति और सन्तुष्टि चाहिए, उसके लिए मैं राज्य-भोग, सुख-सुविधाएँ आदि सब कुछ छोड़ने को तैयार हैं।" - मन्द-मन्द मुस्कराते हुए रैक्व ने कहा- "अधीर न हों, नपवर ! आपको राज्य या सुख के साधन आदि कुछ भी छोड़ने की आवश्यकता नहीं; आवश्यकता है, इन सबके प्रति जो आसक्ति का भाव है, उसे छोड़ने की। राज्य करिये—पर अपने आपको सेवक समझकर, सुख-साधनों का उपभोग करिये, पर यह सोचते हुए कि ये मेरे शरीर की सुरक्षा के लिए हैं, जिस पर सम्पूर्ण देश की सुरक्षा का भार है; दान भी खूब करिये-यह सोचकर कि ये सब वस्तुएँ आपको मिली हैं, दीन-दुःखी, पीड़ित एवं असहाय व्यक्तियों तक पहुँचाने के लिए, जो उनके सच्चे अधिकारी हैं। अपने आपको कर्ता न मानकर केवल माध्यम मान लें । आत्म-शान्ति और कहीं नहीं, आत्मा में ही छिपी होती है, राजन् ! उसे जागृतभर करने की देर है । बस, जो इस तथ्य को जान-देख लेता है, वही द्रष्टा है। आत्मा अनन्त शक्तियों का असीम भण्डार है।"
- जनश्रुति इस ज्ञानामृत का चातक की तरह पान कर गये । फिर प्रणाम करके अपने निवास स्थान को लौटे । आज उन्हें ऐसा लग रहा था कि मानो सिर पर रखा हुआ बोझ हट गया है । तत्त्वज्ञानी रक्व का एक-एक शब्द स्मृतिपटल पर शिलालेख की भांति उत्कीर्ण हो गया था । अन्धकार में भटकते राजा को एक साधनहीन महान् तत्त्वज्ञ रैक्व से प्रकाश मिल गया था। जनश्रुति के जीवन में उस दिन से जो परिवर्तन आया, उसे लोगों ने खुली आँखों से देखा। अब वे अहर्निश अभेद्य शान्ति एवं प्रशम-रस का पान करने लगे।
. वास्तव में आत्मशान्तिनिष्ठ प्रशम-साधक का जीवन जनश्रुति की तरह आत्मतृप्त हो जाता है, वह दान, पुण्य, परोपकार आदि के जो भी कार्य करता है, फल निरपेक्ष होकर कर्तव्य-भावना से करता है। उच्चकोटि का प्रशमनिष्ठ साधक
इससे भी आगे बढ़कर, प्रशमनिष्ठ साधक आत्मवत् सर्वभूतेषु की भावना को लेकर चलता है। जैसा कि उच्च कोटि के प्रशमनिष्ठ का लक्षण ज्ञानसार अष्टक में बताया गया है
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