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________________ प्रशम की शोभा : समाधियोग–२ २१३ एक कह रहा था-"राजा जनश्रुति के राज्य में हम कितने सुखी हैं ! किसी प्रकार की चिन्ता या अभाव हमें नहीं। योग्य शासक के रूप में तीनों लोकों में उनकी ख्याति फैल रही है । उनकी दानशीलता का कोई पार नहीं है।" . तभी दूसरा व्यक्ति बोला-"हाँ भाई ! बात तो तुम्हारी ठीक है, पर सहस्रों व्यक्तियों को सुख समृद्धि देने वाला यह नररत्न स्वयं आत्मिक शान्ति से वंचित है, जो संसार की सबसे बड़ी उपलब्धि है। उससे तो वह अकिंचन गाड़ी वाला रैक्व कहीं श्रेष्ठ है, जिसने लौकिक एवं लोकोत्तर शान्ति भी प्राप्त कर ली है। उसका पुण्य जनश्रुति से कहीं अधिक है।" __ जनश्रुति ने जब यह सुना तो उसका अहं उसी क्षण बर्फ की भांति गलने लगा, विवेक झक्झोरने लगा, हृदय में अपने प्रति हीन-भावना समा गई और आत्मा तड़प उठी उस अकिंचन गाड़ी वाले रैक्व से मिलने के लिए। राजा में अहंभाव तथा आत्म-प्रशंसा की दुर्बलता होते हुए भी ज्ञानपिपासा प्रबल थी। भृत्यों को आदेश दिया-'उस रैक्व गाड़ी वाले महात्मा का पता लगाकर आओ।" रैक्व की तलाश की गई। भृत्यों ने उसे ढूंढ़ लिया। राजा को सूचित कर दिया। वह ६०० दुधारु गायें, सैकड़ों अश्वों सहित रथ, असंख्य स्वर्णमुद्राएँ तथा प्रचुर मात्रा में अन्य बहुमूल्य सामग्री लेकर रैक्व के निवास स्थान पर पहुँचे । राजा ने जब रैक्व को प्रणाम किया तो उन्होंने शुभाशीर्वादपूर्ण मंगल वचन कहे । पर राजा ने जब यह कहा कि यह तुच्छ भेट आपके लिए लाया हूँ, इसे स्वीकार करके कृतार्थ करें; तब रैक्व ने मन्दहास्य के साथ कहा-"राजन् ! आप आध्यात्मिक ज्ञानपिपासा शान्त करने हेतु यहां आये हैं, तब इन सब वस्तुओं की क्या आवश्यकता थी? मैं क्या करूँगा इन्हें लेकर ? मेरी कुटिया तो बहुत छोटी है। ये सब चीजें तो महलों में ही शोभा देती हैं। आपका आना भर पर्याप्त होता । जब इन वस्तुओं की सारहीनता का बोध हो जाय, तब चले आना । जो कुछ भी मेरे पास है, वह सब आप जैसे जिज्ञासुओं के लिए है।" जनश्रुति हतप्रभ होकर लौट आये। आज आँखों में नींद नहीं थी। रक्व ने वे सब वस्तुएँ स्वीकार न की, इससे उनके प्रति राजा की श्रद्धा गाढ़ हो चुकी थी। चौथे पहर में थोड़ी-सी नींद आई । बन्दीजन जब प्रातः जागरणगान करने आये तब राजा भौतिक जगत् से दूर आत्मभवन में रम रहे थे। उनके हृदय में महात्मा रैक्व से मिलने की तीव्र उत्कण्ठा थी, इसलिए बिना कुछ खाये-पिये ही वे महात्मा रैक्व के पास पहुँचे । आज साथ में न दल-बल था, न भेंट-चढ़ावा। आज थी मुखमुद्रा पर गम्भीरता, हृदय में ज्ञानपिपासा और नयनों में दर्शन-लालसा । रक्व तो राजा को देखते ही प्रसन्न हो उठे। सादर बिठाकर कहा-"राजन् ! आज आपने आत्मिक शान्ति का राजमार्ग पा लिया है।" राजा कुछ क्षण मौन रहकर बोले-"अभी कहां पाया है, भगवन् ! आपके Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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