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________________ प्रशम की शोभा : समाधियोग – २ २१७ दूसरा देव कहने लगा - "अरे ! इसकी तुम प्रशंसा करते हो, यह प्रशंसनीय नहीं है । इसने तो सन्तान - परम्परा बन्द करके कुल का उच्छेद कर दिया । अतः मेरी दृष्टि में अधन्य है यह !" यह सुनकर भी मुनि अपनी मनः समाधि से जरा भी विचलित न हुए, समाधि योग में स्थिर रहे । फिर देवता ने सुव्रत मुनि के माता-पिता को विषयासक्त होकर कामक्रीड़ा करते हुए दिखाया, फिर भी मुनि समाधियोग में अटल रहे। फिर देवता उनके मातापिता को मारने-पीटने लगे, माता-पिता करुण स्वर से रुदन करने लगे, तब भी मुनि सुव्रत समाधि में अटल रहे। तत्पश्चात् उन देवों ने वैक्रियशक्ति से एक देवांगना उनके सामने प्रस्तुत की, जो हावभाव करती और अंग मटकाती हुई उनको काम - विकार की दृष्टि से देखने लगी, दीर्घनिःश्वास फेंककर मुनि का आलिंगन करने लगी, इतने पर भी मुनि का एक रोम भी काम विकारवश न हुआ, वे अपने समाधियोग में अविचल रहे । यों समाधि में अचल - अटल रहने से मुनि सुव्रत को केवलज्ञान प्राप्त हो गया । उनकी अविचलता देखकर दोनों देव प्रसन्न होकर उनकी स्तुति और नमस्कार करके चले गये । सुव्रत मुनि क्रमशः मोक्ष में जा पहुँचे । 4. समाधियोग का महत्त्व और उसके अर्थ यह है समाधियोग द्वारा प्रशमनिष्ठा की परीक्षा और उसमें सुव्रत मुनि की उत्तीर्णता का चमत्कार ! वास्तव में समाधियोग में स्थिरता से ही प्रशमनिष्ठा की परीक्षा होती है और साधक का प्रशम खरे सोने के समान चमक उठता है । इससे एक बात यह भी फलित होती है कि प्रशम जब उत्कृष्ट दशा में पहुँच जाता है, तब सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र ये रत्नत्रय पूर्ण निर्मल हो जाते हैं । वह वीतरागता के निकट जा पहुँचता है । इसीलिए एक आचार्य ने समाधि का अर्थ किया है सम्यग् मोक्षमार्गावस्थानं समाधिः । - मोक्षमार्ग में सम्यक् प्रकार से टिके रहना समाधि है । वस्तुतः देखा जाये तो संकल्प-विकल्पों पर विजय पाये बिना स्वस्थता नहीं होती और स्वस्थता के बिना प्रशम (शान्ति) नहीं आ सकता । इसलिए चित्त के स्वास्थ्य को, अनाकुलता को, उपसर्गों की विभीषिका के दौरान अव्याकुलता को कुछ आचार्यों ने समाधि कहा है । संस्कृत काव्य में भी समाधि का विवेचन इस प्रकार मिलता है- "जहाँ जीवात्मा और परमात्मा का ऐक्य होकर समस्त द्वन्द्वों ( विकल्पों ) का क्षय हो जाता है, पानी और नमक की भाँति जहाँ आत्मा और शुद्ध मन की एकरूपता हो जाती है, दोनों में समरूपता हो जाती है, वही समाधि कहलाती है ।" इस प्रकार जब मन, वचन और काया तीनों की प्रवृत्तियाँ आत्मा में अन्तर्लीन हो जाती हैं, तभी समाधियोग कहलाता है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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