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________________ २१० आनन्द प्रवचन : भाग १० प्रशमनिष्ठ साधक गृहस्थ भी हो सकता है, साधु भी। उसकी सबसे पहली पहचान यह है कि इष्टवियोग या अनिष्टसंयोग में क्षुब्ध नहीं होगा, धैर्य से वास्तविकता पर विचार करेगा और शान्ति से कोई न कोई समाधान ढूंढ़ेगा। वह अपने मन का भी समाधान कर लेगा और दूसरों के मन का भी। ___एक महिला अत्यन्त शान्त स्वभावी, चतुर एवं धर्मिष्ठ थी। वह धर्मतत्त्व को भली-भाँति जानती थी, इसलिए दुःख के मौके पर भी शान्ति रख सकती थी । उसका पति बड़े उग्र, क्रोधी, मोहग्रस्त, हठी और उतावले स्वभाव का था । वह जरा-जरा सी बात पर मन में क्षुब्ध हो जाता था। हृदय में जला करता था। यह महिला उसे सुधारने का बहुत प्रयत्न करती थी, लेकिन वर्षों का पड़ा हुआ स्वभाव बदलना दुष्कर था। एक दिन महिला का पति कहीं बाहर गया हुआ था। उसका इकलौता पुत्र अचानक बीमार पड़ा और हठात् चल बसा। महिला ने बहुत उपचार किये उसे बचाने के, मगर वह बच न सका। महिला ने अपने धर्मतत्त्वज्ञान के बल से किसी तरह शोक को दबाया, शान्तिपूर्वक सहन किया । किन्तु उसने सोचा-पतिदेव शाम को आएंगे और पुत्र को न देखकर बहुत विलाप करेंगे, अत्यन्त शोकग्रस्त हो जाएंगे। अतः पति को किसी युक्ति से शोकमुक्त करना चाहिए । उसे एक युक्ति सूझी, लड़के के शव पर कपड़ा ढक दिया, मानो वह निद्रा में सोया हो। शाम को जब उसका पति घर पर आया तो उसने कहा-"आज तो पड़ौसिन के साथ मेरा बहुत भारी झगड़ा हो गया।" पति-"किस बात पर ?" पत्नी-"पड़ौसिन से मैंने एक कीमती गहना उधार लिया था, आज वह उसे वापस लेने आई थी। मैंने कहा कि मैं अभी नहीं दे सकती।" इस पर पड़ोसिन बोली-मैं तो अभी ही लूंगी, गहना लिये बिना न जाऊँगी इस बात पर भारी झगड़ा हो गया ।" पति ने कहा-पगली हो गई हो क्या ? जिसका गहना लाई हो, उसे वापस लौटा देना चाहिए । इसके लिए झगड़ा करना तुम्हारी मूर्खता है।" पत्नी-'गहना वापस दे देना चाहिए, यह बात सही है, लेकिन गहना बहुत सुन्दर है, वापस देने की इच्छा नहीं होती, फिर आपसे पूछे बिना मैं कैसे दे सकती थी।" पति ने कहा- "वाह ! इसमें मुझे क्या पूछना था ? तुम्हें या मुझे कोई चीज बहुत पसन्द हो, लेकिन पराई चीज क्या जबर्दस्ती रखी जा सकती है ? ऐसी समझदार और गुणवती पत्नी होकर भी तुम इतना भी नहीं समझती। भारी गलती की है तुमने । व्यर्थ कलह किया । किसी की चीज जबर्दस्ती रखने का हमारा अधिकार ही नहीं है।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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