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प्रशम की शोभा : समाधियोग
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सकता है ? किसी की उन्नति देखने पर या किसी की प्रगति रोकने में असफल होने पर अहंकारी व्यक्ति में डाह एवं आत्मग्लानि होगी, तब शान्ति का रहना असम्भव है । किसी के पथ में अवरोध बनने से बदनामी एवं निन्दा का लक्ष्य बनना पड़ेगा, जिससे शान्ति भंग होगी ही । अतः अहंकारी व्यक्ति अपने स्वभाव दोष के कारण कभी शान्ति नहीं पा सकता ।
अभाव की स्थिति प्रशम में बाधक कैसे हो जाती है ? इस विषय में मैं पहले बता चुका हूँ ।
असहयोगी भावना : अशान्ति का निमित्त
प्रशम-बाधक चौथा मूलभूत कारण है असहयोग । जब मनुष्य दूसरों से सहयोग पाना चाहता है तो उसे दूसरों को भी सहयोग देना चाहिए । किन्तु स्वार्थी मनुष्य दूसरों को सहयोग नहीं देता, न जरूरतमन्द की मदद करता है, दया और सहानुभूति का वास उसके हृदय में नहीं होता। इस प्रकार अतिस्वार्थी मनुष्य भी अशान्ति को जान-बूझकर बुलाता है । उसे जब दूसरों से सहायता, सहानुभूति एवं सहयोग की अपेक्षा होती है तो सहसा कोई व्यक्ति करने को तैयार नहीं होता । फलतः वह मन ही मन खीजता, कुढ़ता और बेचैन रहता हैं । अतः समाज के साथ असहयोग भी प्रशम में बाधक कारण है ।
वास्तव में देखा जाय तो मनुष्य का अज्ञान एवं अहंजनित अपना स्वभावदोष ही प्रशम में बाधक कारण बन जाता है । मानव-मानव के बीच संघर्ष, लड़ाई और युद्ध का कारण गरीबी, अभाव आदि नहीं, वरन् 'तेरे-मेरे' का प्रश्न है । अपना लाभ, अपनी समृद्धि, अपनी और अपनों की सार-सँभाल अज्ञ एवं अहंग्रस्त मानव को प्रिय लगती है, दूसरे के प्रति वह भाव नहीं, उसकी हानि, अपमान, मृत्यु तक में भी कोई दिलचस्पी नहीं; उलटा, दूसरे से अपना जितना लाभ हो सके, उतना उठा लेने को वह प्रयत्नशील रहता है । मानव-जाति में फैली हुई 'तेरे-मेरेपन' की बीमारी ही समस्त संघर्षों, लड़ाइयों, युद्धों और रक्तपात की जड़ है ।
होती है, जो व्यक्ति से
इस वैषम्य के कारण ही अशान्ति की आग पैदा लेकर समाज और राष्ट्र तक को भस्म कर देती है । अतः अशान्ति का कारण मनुष्य का स्वभावजनित दोष है, वह आन्तरिक है, बाह्य कारण तो उसी आन्तरिक कारण में से पैदा होते हैं । आसक्ति, लोभ, मोह, दूसरों से अधिक अपेक्षा रखना, आदि जो अशान्ति के कारण हैं, वे सब इसी एक आन्तरिक कारण से सम्बन्धित हैं । प्रशम में बाधक इन कारणों को मनुष्य समझदारी से, धैर्य, शान्ति, गम्भीरता और विवेक से दूर कर सकता है ।
ऐसी कोई दुष्कर बात नहीं है, जो न की जा सके। अगर मनुष्य 'जीओ और जीने दो' का मन्त्र लेकर सारी मानव जाति के साथ व्यवहार करना सीख ले तो प्रशम में बाधक कारणों को अविलम्ब दूर किया जा सकता है ।
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