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आनन्द प्रवचन : भाग १०
लेकिन वास्तविकता को भुलाकर अन्धानुकरण करने लगेंगे तो अशान्ति एवं असन्तोष का सामना करना पड़ेगा।
संघर्ष; युद्ध और क्षोभ प्रशम-प्राप्ति में सबसे बड़े बाधक शत्रु हैं। इनसे अशान्ति का जन्म होता है। अशान्ति मानव की सृजन-शक्ति को नष्ट कर डालती है । क्षुब्धचित्त मनुष्य का अशान्त मन किसी भी काम में नहीं लगता है, हठपूर्वक लगाता भी है तो उखड़ जाता है । संघर्ष और युद्ध तो अशान्ति के जनक हैं ही ।
यों तो प्रशम में बाधक अशान्ति-उत्पादक अनेक कारण-कलाप हैं परन्तु मूलकारण चार हैं-अज्ञान, अहंता, असहयोग एवं अभाव ।
अज्ञान तो अशान्ति का जीता-जागता रूप है । जिस प्रकार अँधेरे में भटकता हुआ मानव बेचैन रहा करता है, उसी प्रकार अज्ञान दशा में भी वह अशान्त, बेचैन
और पद-पद पर भ्रान्त-सा रहता है। किसी भी काम को वह सफलतापूर्वक नहीं कर पाता । अज्ञानी व्यक्ति जीवन की सुव्यवस्था से शून्य रहकर अपने लिए अशान्ति के बीज बोता रहता है।
विवेकमूढ़ मनुष्य को सत्यासत्य, हिताहित या कर्तव्याकर्तव्य का ज्ञान नहीं होता, फलतः उसके व्यवहार में असत्य एवं मिथ्याप्रदर्शन का समावेश हो जाता है । आडम्बर-प्रदर्शन, कृत्रिमता, रूढ़िवाद, मूढ़वाद एवं अन्धविश्वास आदि अज्ञान के ही अभिशाप हैं, जिनमें फंसकर मनुष्य अशान्ति को न्यौता देता है । कर्जदारी, पतन, धर्ममर्यादा के विपरीत प्रवृत्ति, मिथ्यात्व आदि भी अज्ञानजनित हैं। जीवन के लक्ष्य से अनभिज्ञ अज्ञानी सुपथ से भटककर कंटकाकीर्ण परिस्थितियों में उलझ जाता है, जिससे उसे हानि, क्षति और असफलता का सामना करना पड़ता है । अनिश्चय के कारण अज्ञानी व्यक्ति भय, सन्देह, अविश्वास एवं आशंका से पद-पद पर आक्रान्त एवं अशान्त रहता है। अज्ञान के कारण आत्मविश्वासहीन मानव परावलम्बी और पराधीन बना रहता है। परभाग्योपजीविता या परावलम्बिता की स्थिति में कौन शान्त रह सकता है ? दुर्वृत्तियों और दुराचार को जन्म देकर अज्ञानी मनुष्य अपनी शान्ति तो नष्ट करता ही है, समाज की शान्ति भी भंग कर देता है।
अहंता भी प्रशम में बाधक कारण है। मनुष्य के पास जर, जन, जमीन सब कुछ हैं, जीवनयापन के पर्याप्त साधन हैं, रोटी, कपड़ा, घर, जमीन सबकी सुविधा है, हर वस्तु आवश्यकताभर है, बल्कि कई वस्तुएँ अधिक भी हैं, फिर भी अहंकार की दुर्बलता के कारण मनुष्य अशान्त रहता है । अहं का दोष मनुष्य को ईर्ष्यालु भी बना देता है, दूसरे की उन्नति उसे फूटी आँखों नहीं सुहाती। अपनी मनोऽनुकूलता में जरा-सा विघ्न पड़ते ही अहंप्रधान व्यक्ति उत्तेजित, क्रुद्ध और क्षुब्ध हो उठता है, जिससे उसका चित्त अशान्ति से भर जाता है । अहंकार की नीच प्रकृति के कारण ईर्ष्या, द्वेष, कलह, संघर्ष एवं स्वार्थ का जन्म होता है, मेरेपन की दुर्बुद्धि जोर पकडती है, इस प्रकार की दुर्गुणाक्रान्त स्थिति में अहंकारी प्रशम के निकट कैसे हो
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