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________________ प्रशम की शोभा : समाधियोग-२ २०३ उन पर विचार करने लगे, अपनी तुलना पिछड़े, अभावग्रस्त, निर्धन एवं साधनहीन लोगों से करने लगे तो उसे लगेगा कि हम उन करोड़ों लोगों से अच्छे हैं, हमारे पास जो है, उसके लिए भी लाखों-करोड़ों लोग तरसते हैं । इस तथ्य को जो समझ लेगा, वह अपने आपको सौभाग्यशाली समझकर सन्तोष का बड़ा आधार प्राप्त कर लेगा। इस प्रकार वह प्रतिकूल परिस्थितियों में भी सन्तुष्ट और शान्त रह सकेगा। असन्तोष भी प्रशम में मुख्य बाधक कारण है । मानव-जीवन में व्यक्त-अव्यक्त बहुत-से ऐसे कारण होते हैं जो असन्तोष पैदा कर देते हैं। असन्तोष उत्पन्न होने के कुछ कारण ये हैं(१) मनुष्य की द्विविधामय स्थिति, (२) यथार्थ से आंखें मूंदकर कल्पना-लोक में विचरण करना, (३) जीवन जीने का अस्वाभाविक मार्ग अपनाना, (४) तृष्णा, लालसा और वासना में रमना, (५) अपने आपके प्रति अनजान रहना, (६) मन को असंतुलित रखना, (७) निरुद्देश्य जीवन जीना। जब मनुष्य का आन्तरिक मन कुछ और चाहता है और बाह्य मन कुछ और सोचता है, आन्तरिक और बाह्य मन में एकरूपता नहीं होती, तब वह दुविधा की स्थिति में पड़ा रहता है, इस कारण उसके जीवन में अशान्ति और असन्तोष पैदा होता है । वह प्रशम में बाधक होता है। अत: प्रशम-प्राप्ति के लिए अन्तर्बाह्यमन में सामंजस्य और एकरूपत्व प्राप्त करना आवश्यक है। कई बार मनुष्य अपनी यथार्थ स्थिति को भूलकर, वास्तविकता से आंखें मूंदकर किसी के कहे-सुने या कल्पित स्वरूप में अपने आपको समझने-देखने की भूल कर बैठता है, इससे जीवन भर असन्तोष एवं अशान्ति का शिकार बनना पड़ता है। ___ महत्त्वाकांक्षा :प्रशम में बाधक अपनी सीमा से अधिक महत्त्वाकांक्षाएँ रखने वाले लोगों को भी अशान्ति का सामना करना पड़ता है । महत्त्वाकांक्षाओं के साथ अपनी स्थिति, योग्यता, परिस्थिति, क्षमता आदि का ताल-मेल बिठाकर चलने वालों को अशान्ति का सामना नहीं करना पड़ता। परन्तु जो महत्त्वाकांक्षाओं के पीछे दीवाना होकर अंधाधुन्ध चलता है, उसके पल्ले असन्तोष और अशान्ति ही पड़ती है। अपनी रुचि, प्रकृति, परिस्थिति, क्षमता, भूमिका आदि को जाने-समझे बिना ही किसी बड़े आदमी के कहने पर एकदम उनके जैसा बनने की या उनकी नकल करने की कोशिश न करें, उनके उपदेशों पर विचार करें, यथाशक्ति जीवन में उतारें, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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