________________
२०६
आनन्द प्रवचन : भाग १०
प्रशम-प्राप्ति में साधक उपाय
प्रशम-प्राप्ति के लिए पहले बताये हुए इन बाधक तत्त्वों से तो दूर रहने की जरूरत है ही, साथ ही इच्छाओं, लालसाओं, कामनाओं और महत्त्वाकांक्षाओं पर भी विवेकपूर्ण संयम करना अपेक्षित है। मनुष्य जितने थोड़े साधनों से सन्तुष्ट रहना सीखेगा, उतना ही वह प्रशम के निकट होगा। प्रशम-प्राप्ति के लिए पंचेन्द्रिय-विषयों का रस-आस्वाद लेने की वृत्ति का त्याग करना अनिवार्य है। विषय अपने आप में अच्छे-बुरे नहीं, उन पर राग-द्वेष, मोह-घृणा, आसक्ति-नफरत आदि करना बुरा है। ये ही अशान्ति के जन्मदाता हैं, इन्हें दूर करने के लिए इन्द्रियों को मारना, पीटना या निश्चेष्ट करना नहीं है, किन्तु मन को विषयों से असंपृक्त रखना है । मन को ज्यों ही विषयों के साथ जोड़ते हैं त्यों ही वह अच्छे-बुरे मनोज्ञ-अमनोज्ञ की कल्पना करने लगता है, और मनुष्य को बेचैन बना देता है। अतः मन का लगाव विषयों से न होने दें।
दूसरा कार्य प्रशम-साधक को यह करना है कि वह राग-द्वेष और कषायों के परिणाम जानकर तथा उनसे हानि-लाभ का विचार करके उनसे दूर रहने का अभ्यास करे, कषायों को अपने में प्रादुर्भूत न होने दें। आप कहेंगे, यह कैसे हो सकता है ?
ज्ञानसार अष्टक में दो उपाय बताये हैं :
प्रथम उपाय है-विकल्पों को मन में कतई न आने दे । विकल्प नहीं उठेंगे तो किसी भी देश, काल, परिस्थिति, व्यक्ति आदि का सम्पर्क अच्छे-बुरे, तेरे-मेरे, राग-द्वेष, आसक्ति-घृणा, हर्ष-शोक आदि द्वन्द्वों को उत्पन्न नहीं करेगा । फलतः इनके कारण होने वाली अशान्ति से मनुष्य बच सकेगा और प्रशम की साधना कर सकेगा।
दूसरा उपाय है-स्वात्मभाव में ही रमण करना। जब मनुष्य निजात्मभाव स्व-स्वरूप में, आत्म-गुणों में रमण करेगा, उन्हीं में तल्लीन हो जाएगा, तो दूसरी ओर के राग-द्वेष कषाय आदि के तथा विषयतृष्णा के विचार या विकल्प उठेंगे ही नहीं, इससे स्वतः ही अशान्ति का बीज समाप्त हो जायेगा।
निष्कर्ष यह है कि इन्द्रिय-विषयों का रस-विच्छेद एवं कषायवृत्ति-विच्छेद का अभ्यास करना आवश्यक है, जो कि प्रशम का साधक है । इसके अतिरिक्त मानसिक, वाचिक एवं कायिक तीनों प्रकार के प्रशम के लिए यह आवश्यक है कि तीनों पर संयम रखा जाय, तीनों के प्रयोग के समय सावधानी बरती जाये और सहिष्णुता भी रखी जाये । सहिष्णुता के लिए मैत्री, प्रमोद, करुणा और माध्यस्थ्य इन चार भावनाओं का विकास किया जाये। मानव-मानव में विभिन्नताओं को लेकर जो विषमता पैदा होती है और उससे अपने-पराये की तथा तज्जनित राग-द्वेष आदि की वृत्ति पैदा होती है जो दूसरों के हित, लाभ एवं कल्याण के चिन्तन की ओर प्रेरित नहीं होने देती, मैत्रीभावना उस विषमता और तज्जनित दोषों को रोकती है । गुणी के
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org