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________________ ५० प्रशम की शोभा : समाधियोग-२ धर्मप्रेमी बन्धुओ! कल मैंने प्रशम की उपयोगिता, महत्ता, उसके स्वरूप और उसकी प्राप्ति के स्थलों के सम्बन्ध में विविध पहलुओं से प्रकाश डाला था, आज भी मैं इसी जीवनसूत्र के सम्बन्ध में जो अवशिष्ट महत्त्वपूर्ण विचार व बातें हैं, उन पर अपने विचार प्रस्तुत करूँगा। प्रशम-प्राप्ति का प्रयात्मक पथ प्रशम का मानव-जीवन में जब महत्त्वपूर्ण स्थान है तो उसकी प्राप्ति के लिए प्रत्येक मानव लालायित हो उठता है, परन्तु जैसा कि मैंने कल कहा था कि आन्तरिक पुरुषार्थ के बिना प्रशम प्राप्त होना दुष्कर है, वैसे ही प्रशम-प्राप्ति के कौन-कौन-से स्रोत हैं, उन्हें जाने बिना, साथ ही उन पर श्रद्धा और आचरण किये बिना प्रशम के सर्वांगीण दर्शन कठिन हैं। किसी भी कार्य में प्रवृत्ति करने के लिए व्यक्ति को त्रयात्मक पथ अपनाना पड़ता है । जैसे किसी व्यक्ति को अध्यापक बनना है तो पहले उसे लक्ष्यबिन्दु निर्धारित करना आवश्यक है, इसी के अन्तर्गत उसे लक्ष्यबिन्द्र पर दृढ़ श्रद्धा एवं रुचि करना आवश्यक है । यानी 'मेरे लिए अध्यापक बनना ही हितकर है, अन्य कुछ नहीं,' इस प्रकार का लक्ष्यबिन्दु निश्चित करने के साथ ही उस पर दृढ़ श्रद्धा व रुचि रखना अनिवार्य है। तत्पश्चात् शिक्षा-मनोविज्ञान, शिक्षाशास्त्र, शिक्षा के लिए निर्धारित विषयों का ज्ञान तथा उसके बाद जिन विद्यार्थियों को पढ़ाना है, शिक्षा देनी है, उनके प्रति विद्या या शिक्षा का प्रयोग करना है, उन्हें प्रतिदिन अभ्यास भी कराना है। जो व्यक्ति अध्यापक बनने के लक्ष्यबिन्दु पर रुचि या श्रद्धा तो रखता हो, लेकिन उसे तत्सम्बन्धी ज्ञान न हो तो मन मसोसकर ही रह जाएगा, कुछ भी कर न सकेगा। मान लो, एक अध्यापक को अपने पाठ्यविषय का ज्ञान भी हो, लेकिन अपने लक्ष्यबिन्दु के प्रति रुचि व श्रद्धा न हो, तो भी वह ज्ञान कृतकार्य नहीं हो सकेगा। अपने लक्ष्यबिन्दु के प्रति श्रद्धा रुचि भी हो पाठ्यविषय का ज्ञान भी हो, लेकिन पढ़ाये नहीं, विद्यालय में जाए ही नहीं, घर बैठे-बैठे ही मनसूबे बाँधा करे तो क्या वह अध्यापक अपने कार्य में सफल हो सकेगा? कदापि नहीं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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