________________
१६६
आनन्द प्रवचन : भाग १०
इसी प्रकार क्या डाक्टरी, क्या वकालत, क्या व्यापार, क्या कृषि आदि तमाम प्रवृत्तियाँ त्रयात्मक हैं । इसी प्रकार प्रशमपथ पर चलकर उसे पाने की प्रवृत्ति भी श्रयात्मक है । प्रशम को ही लक्ष्यबिन्दु मानकर अन्तर् से इसके प्रति श्रद्धा व रुचि होनी सर्वप्रथम आवश्यक है । तत्पश्चात प्रशम-प्राप्ति सम्बन्धी ज्ञान, जो विभिन्न पहलुओं से हो, और उसके बाद प्रशम का आचरण, तत्सम्बन्धी क्रिया होनी चाहिए ।
सर्वप्रथम प्रशम-प्राप्ति का लक्ष्यबिन्दु रखने वाले की श्रद्धा व निष्ठा पक्की होनी चाहिए । प्रथम प्राप्ति के प्रति उसकी अनन्य भक्ति एवं अनन्य रुचि होनी चाहिए । एक व्यक्ति चाहता तो है प्रशम-प्राप्ति, किन्तु उसकी अन्तर् से रुचि हैप्रशमबाधक बातों में । क्लेश, कलह, युद्ध, मार-काट, शक्ति सन्तुलन आदि प्रशमबाधक अशान्तिवर्द्धक उपायों में भी उसकी रुचि व श्रद्धा है, और वह ज्यादा गहरी है तो समझ लेना चाहिए कि अभी उसकी श्रद्धा प्रशम-प्राप्ति के विषय में कच्ची है झूठी है, सच्ची नहीं है, दिखाऊ है ।
इसलिए प्रशम-प्राप्ति के अभिलाषी व्यक्ति को अपने निर्धारित लक्ष्यबिन्दु के प्रति अपनी श्रद्धा, रुचि, भक्ति, निष्ठा, लगन, जिज्ञासा एवं तीव्रता की परीक्षा एवं जाँच-पड़ताल कर लेनी चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि लक्ष्यबिन्दु तो हो धन कमाने, सत्ता प्राप्त करने या अधिकाधिक सांसारिक विषयों के उपभोग का और सीखने, सुनने या जानने लगे प्रशम-प्राप्ति सम्बन्धी बातें ! यदि ऐसा होगा तो सब कुछ सुना-सुनाया जाना-माना हुआ बेकार हो जाएगा । इसलिए अगर लक्ष्यबिन्दु गलत बना लिया है। तो सर्वप्रथम दिल कड़ा करके अपना लक्ष्यबिन्दु बदलना होगा - प्रशम-प्राप्ति का ही बनाना होगा । जाना चाहे बम्बई और बैठ जाए दिल्ली की गाड़ी में, या दिल्ली जाने का टिकट ले तो वह यात्री बम्बई कैसे पहुँच सकेगा ? इसलिए प्रशम - प्राप्ति के are को भी अपनी श्रद्धा, रुचि एवं लगन उसी लक्ष्यबिन्दु की बनानी होगी ।
प्रशम-प्राप्ति का लक्ष्यबिन्दु स्थिर किये बिना अगर यों ही चलता जाएगा अंधाधु ंध तो प्रशम-प्राप्ति के बदले प्रशम - बाधक लुभावने मायाजाल में फँस जाएगा । लक्ष्यविहीन यात्री इधर-उधर वनों या बीहड़ों में भटक जाता है वैसे ही लक्ष्य विहीन साधक भी अपने प्राप्तव्य से भटक जाएगा । अतः प्रशम - प्राप्ति के साधक को पदपद पर, उसी लक्ष्यबिन्दु को स्मरण करते हुए अपने लक्ष्यबिन्दु को हृदयंगम करते हुए, उसे एक क्षण भी विस्मृत न करते हुए उसके प्रति अनन्य श्रद्धा के साथ चलना होगा । साँस-साँस में प्रशम - प्राप्ति की ध्वनि या बस, वही चाहिए की आवाज उठनी चाहिए | इसके अतिरिक्त अगर कोई तीन लोक की सम्पत्ति, सत्ता या तीन लोक के सुन्दर पदार्थ भी देने लगे या कोई भी प्रलोभन देने लगे तो उसे तुरन्त ठुकरा देने की दृढ़ता उसमें होनी चाहिए ।
किसी भी कार्य में सफलता-असफलता का निर्णय करने की या किसी कार्य - क्रम की सत्यता-असत्यता को जाँचने की शक्ति लक्ष्यबिन्दु से ही
मिलती है । इसी
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org