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________________ १६० आनन्द प्रवचन : भाग १० देने से वे बाहर से तो उस काम को नहीं करते हुए दिखाई देंगे, परन्तु उन इन्द्रियों या अंगों का संचालक मन है, उसे तो उन्होंने दण्ड नहीं दिया ? उसने काम, क्रोध, लोभ, मोह, विषयलोलुपता, राग-द्वेष आदि का विचार या मनन किया ही क्यों ? वह गलत विचार न करता तो इन्द्रियाँ या अंग उसके द्वारा गलत कार्यों के करने के लिए प्रेरित न होते । अपराध है मन का और दण्ड देते हैं - इन्द्रियों तथा अंगों को । अतः जब तक मन को ठीक न करोगे, मन से विषयों और कषयों आदि से विरत या विरक्त न होगे, तब तक इन्द्रियों और अंगों को निश्चेष्ट कर देने से प्रशम का नाटक होता रहेगा, असली प्रशम जीवन में नहीं आ पायेगा । असली प्रशम तो मन से ही समझ - बूझकर विषय-वासनाओं एवं कषायों का त्याग एवं शमन करने से ही आयेगा । अतः अंगों या इन्द्रियों को निश्चेष्ट या निःस्पन्द कर देने या कार्यावरोध कर देने से उनका बाह्यरूप से शान्त होना प्रशम नहीं कहला सकता । प्रशम तो वही कहलायेगा, जहाँ मन से प्रशम की साधना की जायगी । प्राचीनकाल में भारत के कई साधक इस भ्रान्ति के शिकार हो गये थे । महाभारत में शंख और लिखित दो भाइयों का वर्णन आता है । एक दिन लिखित शंख ऋषि के आश्रम में गया और वहाँ मनोहर फल देखकर क्षुधा पूर्ति के लिए उन्हें तोड़कर खाने लगा । शंख के शिष्यों ने देखा तो उन्होंने लिखित को उस चोरी के अपराध का प्रायश्चित्त लेने को कहा । राजा के पास लिखित दण्ड लेने को गया तो उसने दण्ड के बदले माफी देने को कहा । परन्तु लिखित ने आग्रह किया कि मुझे पूरा दण्ड दो, मेरे हाथ काट डालो, जिन्होंने यह अपराध किया है । इस पर उसने राजा से हाथ कटवा डाले । बिल्वमंगल ने एक रूपवती युवती पर कुदृष्टि की । उसके कारण स्वयं तपाई हुई लोहशलाकाएँ आँखों में भोंककर आँखें फोड़ डालीं और सूरदास (अंधे) बन गये । इस प्रकार आँखों की गलती का दण्ड उन्हें दे दिया । महात्मा गांधी के आश्रम में एक प्रोफेसर थे, उन्होंने जीभ को असंयम के अपराध से रोकने के लिए अपने ओठ लोहे के तारों से सीं लिये थे । एक साधु ने कामविकार के कारण जननेन्द्रिय उत्तेजित हो जाने से उसे ही काटकर फेंक दिया था । क्या इस प्रकार अंग-भंग करने से उन उन विषयों के बाह्य निरोध हो जाने मात्र को प्रशम कहा जा सकता है ? कदापि नहीं । अगर इसे ही प्रशम कहा जाए तो संततिनिरोध के लिए वीर्यवाहिनी नस को कटवा लेने को भी काम - प्रथम कहना पड़ेगा । पर यह प्रशम का वास्तविक उपाय नहीं है, और न ही इस तरीके से अंग-भंग से होने वाले बाह्य विकार-रोध को प्रशम कहा जा सकता है । प्रशम का सम्बन्ध अन्तरंग से है, बाह्य अंगोपांगों के रोकने या चेष्टाओं के विरोध से नहीं । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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