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________________ १८४ आनन्द प्रवचन : भाग १० स्वात्मभावना' से उत्पन्न सुखामृतरूपी शीतल जल से जो काम, क्रोध आदि रूप अग्नि से जनित संसार-दुःखरूप दाह को उपशान्त करता है, वह शम है। वही धर्म है। ___ संसार में मनुष्य क्रोध, काम, लोभ, मोह, तृष्णा, मत्सर आदि विकारों से दुःख पाता है । इन विकारों के कारण मनुष्य खिन्न, अशान्त तथा दुःख-दैन्य से युक्त रहता है। इष्टवियोग और अनिष्ट के संयोग के समय साधारण मानव-मन क्षुब्ध या आतंकित हो जाता है । अपने अहं को चोट पहुँचने के कारण मनुष्य अशान्त हो जाता है, दूसरों की तरक्की देखकर कुढ़ता है, असन्तुष्ट होकर अशान्त हो जाता है। किसी कार्य का फल तुरन्त या मनचाहा न मिलने पर साधारण मनुष्य का मन अशान्त हो जाता है, असहायता की अनुभूति में संघर्ष, संदेह, भय, ईर्ष्या, क्रोध, निराशा और क्रूरता आदि ये सब असंतुलन पैदा करते हैं । असंतुलित मन में अशान्ति पैदा होती है। इसलिए प्रशम का लक्षण बताया गया है कि जब मनुष्य आत्मभाव में रमण करता है, तब उसे ये जितने भी विकार हैं, वे सब परभाव प्रतीत होते हैं, स्वभाव तो आत्मा या उसके निजी ज्ञानादि गुण हैं । अपने आत्मभाव में रमण करने से उसकी ये सब अशान्ति उत्पन्न करने वाली विकार-वृत्तियाँ शान्त हो जाती हैं। मन में भी ईर्ष्या, द्वष, क्रोध आदि के विचार या विकल्प लाता ही नहीं। वह अपने स्वाभाविक स्वरूप पर ध्यान देता है, उसी का विचार करता है, बाहर से काम, क्रोधादि के हमले होने पर उनका उस पर फिर असर नहीं होता। जैसे वाटरप्रूफ या फायरप्रूफ कपड़े पर पानी या आग का कोई प्रभाव नहीं पड़ता, वैसे ही स्वभाव में रमण करने वाले शम साधक पर आत्मा से बाहर के किसी भी परभाव का प्रभाव नहीं पड़ता। शम-ज्ञान का परिपाक इसीलिए उपाध्याय यशोविजयजी ज्ञानसार-अष्टक में शम का स्पष्ट लक्षण बताते हैं विकल्पविषयोत्तीर्णः स्वभावावलम्बनं सदा । ज्ञानस्य परिपाको यः स शमः परिकीर्तितः॥ 'जो व्यक्ति रागद्वेषादि विकल्पों और पंचेन्द्रिय-विषयों को पार करके सदा स्वभाव का अवलम्बन लिये रहता है, उसकी स्वरूप-रमणता का ज्ञान जब परिपक्व हो जाता है, उसका स्वभाव-ज्ञान पक्का हो जाता है, उसे वह पच जाता है, वही स्थिति शम कही गई है।' ___ यह लक्षण पहले के लक्षण से कुछ विशद है । प्रशम-जीवन में काम, क्रोधादि विकृति या विषयलालसा की वृत्ति प्रथम तो उठती ही नहीं, क्योंकि वह सतत स्व-स्वरूप १. स एव धर्मः स्वात्मभावनोत्थसुखामृतशीतलजलेन कामक्रोधादिरूपाग्निजनितस्य संसारदुःखदाहस्योपशमकत्वात् शमः। -प्रवचनसार ता० वृत्ति Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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