SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 209
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रशम की शोभा : समाधियोग - १ १८५ में रमण करता है, कदाचित् व्युत्थानावस्था में वह उठ भी जाए, व्यवहार के समय कदाचित उत्पन्न भी हो जाय तो वह शीघ्र ही उपशान्त हो जाती है, ऐसी अवत्था 'शम' या प्रशम है । इसी बात का एक आचार्य ने समर्थन किया है— पयइए कम्माणं नाऊणं विवागमसुर्हति । अवरद्ध विन कुप्पs, उवसमओ सव्वकाले पि ॥ व्यक्ति आत्मनिरीक्षण करता है तो उसे यह प्रतीत हो जाता है कि कषाय परिणति आत्मा का स्वभाव (प्रकृति) नहीं है तथा पूर्वकृत कषायादिजनित अशुभकर्मों का ही यह फल है कि मुझे शान्ति का वातावरण नहीं मिला है, और पूर्वकृत अशुभकर्मों के फलस्वरूप मेरे प्रति लोग क्रोध-रोष, द्वषादि के रूप में अपराध करते हैं । अत: इस पदार्थपाठ से वह सदा सतत अपराधी के प्रति कुपित नहीं होता, कामादि विकारों को जरा भी स्थान नहीं देता, सदा सतत उपशान्त रहता है । इसी कारण एक आचार्य ने शम का लक्षण किया है क्रोधकषाय कण्डूविषयतृष्णोपशमः शम इत्याहुः । कोधकषायरूप खुजली और विषयतृष्णा की उपशान्ति ही शम कहलाती है । यद्यपि कषायों का सर्वथा उपशम तो ग्यारहवें गुणस्थान में जाकर होता है, परन्तु प्रशम तो चतुर्थ गुणस्थान से ही प्रारम्भ हो जाता है । इसलिए प्रशम की परिभाषा इस प्रकार की गई " शमः प्रशमः अनन्तानुबन्धिनां कषायाणामनुदयात् ।" कषाय की जो अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानी, प्रत्याख्यानी और संज्वलन, ये चार कोटियाँ बताई गई हैं, उनमें से अत्यन्त निकृष्ट अनन्तानुबन्धी कोटि के कषायों का अनुदय होना - उपशान्त हो जाना प्रशम कहलाता है । मतलब यह है कि जैसे मैट्रिक से लेकर एम. ए. तक का विद्याध्ययन करने वाला विद्यार्थी ही कहलाता है, वैसे ही सम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर उपशान्तमोहनी यगुणस्थान ( चौथे से ग्यारहवें तक) वाले सभी जीव प्रशमयुक्त कहलाते हैं । उनमें विभिन्न कक्षाओं या भूमिकाओं का अन्तर है । ध्येय तो सबका एक ही है । श्रीमद्भागवत ( ११।१६।३६ ) में शम का लक्षण यों किया गया है— 'शमो मन्निष्ठताबुद्धिः ।' Jain Education International शम - शुद्ध आत्मनिष्ठा 'परमात्मा (शुद्ध आत्मा) में निष्ठारूप बुद्धि होना शम है ।' शम का लक्षण पहले जो स्वात्मभावना में रमण करना बतलाया था, उसमें और इस लक्षण में तत्त्वतः कोई अन्तर नहीं है । एक वैदिक आचार्य ने शम का लक्षण बताया है— 'सदैव वासनात्यागः शमोऽयमिति स्मृतः ' For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy