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________________ उग्रतप की शोभा : क्षान्ति- २ १७५ मुनि अपनी गजगति से आगे बढ़ रहे थे । पीछे-पीछे चले आते मुनि सुकोशल (जो पुत्र थे ) एकदम आगे हो गये, और बोले - "गुरुदेव ! मैं क्षत्रिय-पुत्र हूँ, संकट के समय आगे रहना मेरा सहज धर्म है, अतः आप पीछे रहें, मुझे आगे चलने दीजिए ।" मुनि कीर्तिधर ने भी बहुत रोका, पर वीर पुत्र सुकोशल मुनि स्वयं आगे हो गए । बाघिन उनके निकट आकर खड़ी रही और टकटकी लगाकर देखती रही । पूर्वजन्म का वैर जागृत हो गया । उसकी आँखों में खून उतर आया । गुस्से से आगबबूला हो गई । दोनों मुनि बाघिन की क्रूर चेष्टाओं से जान गये कि यह हमला करेगी, प्राणान्तक उपसर्ग आया जानकर क्षमाशील महासत्त्व मुनियों के रोम में कम्पन भी न हुआ । आत्भार्थी मुनि आत्मसमाधिपूर्वक आत्मभावों में रमण करने लगे । बाघिन भयंकर गर्जना के साथ सुकोशल पर झपट पड़ी । उसने फौलादी पंजों से मुनि को धर दबोचा । उनका शरीर क्रूरतापूर्वक फाड़ डाला । रक्तपान करके अजीब सुखानुभव हुआ बाघिन को । क्षमाशील उग्रतपस्वी सुकोशल मुनि इस मरणांतक कष्ट को समभावपूर्वक सहन करने के कारण समस्त कर्मों का क्षय करके मुक्ति में जा विराजे । इसके बाद बाघिन ने मुनि कीर्तिधर पर झपटकर अपने पैने नखों और दाँतों से उनके शरीर को भी चीर दिया । क्षमाशील, भेदविज्ञानी, उग्रतपी मुनि कीर्ति-धर भी आत्मसमाधिपूर्वक उपसर्ग सहने के कारण मोक्ष में पहुँच गए । अब दोनों की लाश को बाघिन चीर-फाड़कर खाने लगी । ज्योंही वह सुकोशल मुनि का जबड़ा चबाने लगी, उसे उसका स्वाद कुछ परिचित सा लगा। उसकी अनुभूति गहरी हुई । मन में पूर्वजन्म की स्मृतियों का प्रवाह झलकने लगा - ' अयोध्या के राजमहल में एक नारी अपने शिशु को स्तनपान करा रही है । बालक चुकर चुकर दूध पी रहा है । नन्हा सा सुकुमार है उसका जबड़ा !' एकाएक बाघिन को पूर्वजन्म की स्मृति साकार हो आई - "अरे ! वह नारी मैं ही तो हूँ । यही तो मेरा प्रियपुत्र है ! मैं ही पूर्वजन्म में अयोध्या की रानी थी। हाय ! मैंने क्या कर डाला ? जिस जबड़े के माध्यम से मैंने अपना दूध पिलाकर शक्तिशाली बनाया, उसी को खा गई ! जिन हाथों से पुत्र को प्यार से सहलाया, उन्हीं से उसे चीर डाला । ये ही तो हैं मेरे पूर्वपति ! मुझे जिन हाथों से पति की सेवा करनी चाहिए, उन्हीं हाथों से उनको मार डाला ! बड़ी पापिन हूँ । क्रोधाविष्ट होकर रानी से बाघिन बनी, और अब तक बदले की आग में झुलस रही हूँ ।" जन्म बाघिन के मन में पश्चात्ताप का झरना फूट पड़ा, जिसमें अपने दुष्कृत्यों को धोकर, अनेक पापकर्मों को हलका किया । उसी समय आमरण अनशन ग्रहण कर लिया और प्राणत्याग कर सद्गति में पहुँची । बन्धुओ ! इस प्रकार उग्रतपस्वी, क्षमाशील तथा क्षान्ति के सभी अंगों के पालक मुनिवरों ने उग्रतप की शोभा बढ़ाई, जिसका जबर्दस्त प्रभाव बाघिन बनी हुई रानी पर भी पड़ा । उसका हृदय भी पश्चात्ताप से शुद्ध हुआ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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