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आनन्द प्रवचन : भाग १०
रानी अपनी आग्रहभरी प्रार्थना ठुकराये जाने से दुःखित होकर मन ही मन पति के प्रति आक्रुष्ट हो उठी, उसकी मनोभूमि में घृणा, द्वेष और बैर-भाव के अंकुर फूट पड़े, मुनि कीर्तिधर के प्रति । वह क्रोधातिरेक से मन में झुलसती रहती । उनका नाम लेना भी उसे न सुहाता ।
__ मुनि कीर्तिधर दीक्षा के बाद अपने आचार्य विजयसेन के साथ देश-देशान्तर में विचरण करने लगे। वे कठोर अभिग्रह और कठिन परीषह में भी अटल रहते, निरतिचार संयम पालन करते थे। उनकी उत्कृष्ट साधना से सन्तुष्ट होकर गुरु ने उन्हें एकल बिहार की अनुमति दे दी।
अब मूनि कीर्तिधर मास-मास का उपवास करते, शुद्ध श्रमणाचार का पालन करते हुए, ग्राम-नगरों में विचरण करते-करते अयोध्या में आये । मासोपवास के पारणे हेतु वे नगरी में पधारे । मुनि ईर्यासमितिपूर्वक निर्दोष आहार के लिए नगरी ने घूम रहे थे, तभी अचानक महल के गवाक्ष में बैठी हुई रानी सहदेवी की दृष्टि उन पर पड़ी, वह तुरन्त उन्हें पहचान गई । उसका क्रोध भड़क उठा। इसके मस्तिष्क में कुशंका और कुविचारों का अंधड़ चलने लगा-'अब यदि उनके सम्पर्क से मेरे पुत्र ने भी दीक्षा ले ली तो मैं सर्वथा अरक्षित और असहाय हो जाऊँगी।' रानी भान भूल गई । उसकी कुबुद्धि में पुत्र-वियोग की शंका ही मुनि का अपराध बन गई । निर. पराध मुनि उसकी दृष्टि में अपराध की खानि बन गये । उसने तुरन्त अपने अनुचरों द्वारा मुनि कीर्तिधर को नगर से बाहर निकलवा दिया।
मुनि तो क्षमामूर्ति थे, वे इस अन्याय को परीषह समझकर समभाव से सह गए, लेकिन राजा सुकोशल की धायमाता को यह सहन न हो सका, उसने रोते-रोते राजा सुकोशल को सारी दुःखद घटना सुनाई। सुकोशल भी उन्हीं क्षमावीर कीर्तिधर का पुत्र था । उसने माता पर जरा भी क्रोध न किया वरन् उसे संसार से विरक्ति हो गई। उसने मुनि के पास पहुँच कर दीक्षा की प्रार्थना की । मन्त्रियों को पता चला तो उन्होंने उत्तराधिकारी होने तक रुक जाने की प्रार्थना की, मगर सुकोशल ने यह कहकर उनकी प्रार्थना ठुकरा दी कि 'रानी चित्रमाला गर्भवती है, उसके पुत्र को राजगद्दी पर बिठा दीजिएगा।' मन्त्री निरुत्तर हो गए । सुकोशल ने मुनि दीक्षा अंगीकार कर ली । अब मुनि कीर्तिधर और मुनि सुकोशल दोनों उग्रतप करते हुए विचरण करने लगे। रानी सहदेवी को ज्यों ही पुत्र के दीक्षा लेने के समाचार मिले, वह क्रोध से बेभान उठी । क्रोधाविष्ट होकर वह महल की छत पर से कूद पड़ी। पति-पुत्र के प्रति बदले की दुर्भावना लिए घोर पीड़ापूर्वक उसने शरीर त्यागा और मरकर वहीं गिरिगुफा में बाघिन बनी।
___ मुनि कीर्तिधर और मुनि सुकोशल ने एक गिरिगुफा में चातुर्मास किया। वर्षावास की अवधि पूरी होने पर दोनों उग्रतपस्वी, क्षमाशील मुनि पारणा लेने हेतु नगर की ओर चले । कुछ ही कदम चले होंगे कि सामने से बाघिन आती दिखाई दी।
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