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________________ उपतप की शोभा : क्षान्ति–२ १७३ 'उस क्षमाशील का हृदय विश्व के जितना विशाल है, किन्तु उसमें किसी गलत बात को स्मृति में धारण किये रखने को कोई अवकाश नहीं है।' __ तात्पर्य यह है कि क्षमाशील उग्रतपस्वी किसी के दुर्गुण, अपराध, दोष या अपकार की ओर नहीं देखता, वह सदा प्रकाश का पहलू देखता है। इसीलिए उसके दिल-दिमाग में किसी के अन्धकारमय पहलू को कोई स्थान नहीं रहता। वह किसी के द्वारा गाली दिये जाने पर भी उसे वरदान के रूप में मानता है, शान्त होकर उसके वास्तविक अर्थ पर विचार करता है। जैसे किसी ने कहा- 'तेरा सत्यानाश हो तो वह यही सोचता है कि तेरे सत्य का कभी नाश नहीं होगा। सत्य का अनाश ही तो सत्यानाश (सत्य + अनाश) है। यही तो मंगलकारी आशीर्वाद है। गाली देने पर मैं अपने मन में मलिनता लाऊँ तो मेरा ही नुकसान है, मेरी ही आत्मा पर अशुभ कर्म के आवरण चढ़ेंगे; और प्रसन्न रहकर समभाव से सहूँगा तो लाभ है, मेरे अशुभ कर्मों का क्षय होगा। बदला लेने की या प्रतिहिंसा की शक्ति न होने से अनिच्छापूर्वक किसी के अपकारों को सह लेना सच्ची सहिष्णुता नहीं है। वास्तव में वह सहिष्णुता नहीं, बल्कि निर्बलता या कायरता होगी। किन्तु प्रतिकार की शक्ति होते हुए भी किसी के अपकार को उसे दयापात्र, अशान्त या रुग्ण समझकर उस पर क्षमाभाव दर्शाना ही सच्ची सहिष्णुता है। अयोध्यानरेश कीर्तिधर ने प्रवृजित होने की जब मन्त्रियों के समक्ष इच्छा प्रगट की तो उन्होंने पुत्र होने तक रुक जाने की प्रार्थना की । उन्होंने बताया कि शासकविहीन राज्य पर शत्रु किसी भी समय आक्रमण करके प्रजा को पीड़ित करते रहेंगे, अराजकता छा जायेगी । राजा ने इस पर मनन करके उत्तराधिकारी होने तक गृहवास में रहना स्वीकार किया । कुछ दिन बाद रानी सहदेवी गर्भवती हुई । रानी अपने पति के प्रव्रज्या लेने के दृढ़ संकल्प को जान चुकी थी, इसलिए पुत्र उत्पन्न होने पर भी बालक को छिपाये रखा। आखिर अन्तरंग दासियों द्वारा राजा कीर्तिधर को अपने पुत्र होने का पता लग गया। धूमधाम के साथ पुत्रोत्सव करके राजकुमार का नाम सुकोशल रखा । इस उत्सव के साथ ही राजा ने सुकोशल को सिंहासन पर बिठा दिया। स्वयं दीक्षा ग्रहण करने की तैयारी करने लगा। इस घटना से सहदेवी दुःख से भर गई। उसे राजा के प्रति अत्यन्त प्रीति थी। उसने राजा की बहुत खुशामद की, बार-बार चरणों में सिर रखकर प्रार्थना की। आंसू बहाते हुए कहा-"प्राणनाथ ! आपके वियोग की कल्पना से ही मेरा हृदय फटा जा रहा है । आप गृहस्थ जीवन में ही रहकर धर्माराधना कीजिए, मैं आपके धर्माराधन में कभी बाधक न बनूंगी । आप ही मेरे जीवनधन हैं । मैं तो केवल आपके दर्शनों से ही तृप्त हो जाऊँगी।" रानी की करुण प्रार्थना का राजा के दृढ़ संकल्पमय हृदय पर कोई प्रभाव न पड़ा । वह अपने निश्चय पर अटल रहे और एक दिन उन्होंने सबको छोड़कर मुनिदीक्षा ले ली। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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