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________________ १७० आनन्द प्रवचन : भाग १० तुम्हीं एकादशी का पारणा नहीं करते, मैं भी करता हूँ । तुम क्षत्रिय हो, मैं ब्राह्मण । जब तक मैं पारणा नहीं कर लेता, तब तक तुम्हें उसका अधिकार नहीं । अतः अभी यहीं ठहरो ।” अम्बरीष नृप ने विनम्रभाव से वर्जना स्वीकारी और वहीं तट पर बैठकर प्रतीक्षा करने लगे । किन्तु यह क्या, काफी समय बीत गया, मगर दुर्वासा गये तो फिर मानो लौटना ही भूल गये । काफी समय बीत जाने पर उन्होंने कुछ विद्वान ब्राह्मणों से निर्णय माँगा तो उन्होंने कहा - "महाराज ! आप बिना प्रतीक्षा किये पारणा करें । तप का महत्व क्रुद्ध होकर शाप देने तथा अहंकर प्रदर्शित करने में नहीं, जगत का कल्याण करने में है । प्रतिवाद न करने से अवांछनीयता बढ़ती है। आप धर्मज्ञ हैं । अनैतिक आचरण का विरोध भी धर्म का अंग है। अतः आप निःसंकोच होकर पारणा करिये ।” महाराज ने विद्वान विप्रों की बात मानकर पारणा प्रारम्भ कर दिया । यह देखते ही दुर्वासा का क्रोध भड़क उठा । उन्होंने अम्बरीष पर कृत्याचात किया । कृत्या अभी तक महाराज तक पहुँची ही थी कि महाराज के शरीर से धर्म, न्याय, सदाचार, चरित्र और विनय - ये पाँच देव निकले और कवच की तरह उनके चारों ओर विराजमान हो गये । कृत्या को आघात का अवसर न मिला तो वह प्रहारक दुर्वासा को ही विनष्ट करने को तुल गई । दुर्वासा हाहाकार कर उठे । यह देखकर अम्बरीष नृप की करुणा उमड़ी, उन्होंने नेत्रों की शीतल अमृत धारा से कृत्या को शान्त किया । दुर्वासा पराजित हुए खड़े थे । उन्होंने अनुभव कर लिया कि उग्रतप से अर्जित शक्ति की शोभा विनम्रता और क्षमा में है, अहंकार और क्रोध में नहीं । उग्रतप के साथ क्रोधादि क्यों लग जाते हैं ? प्रश्न होता है कि इतना उग्रतप करने वाले के साथ क्रोध, अहंकार, असहिष्णुता, अधीरता आदि दुर्गुण क्यों लग जाते हैं और क्यों उस पवित्र तप को दूषित कर देते हैं । कुछ लोगों ने तो मानो उग्रतप के साथ क्रोध और अहंकार का ठेका ही ले रखा है । वे कहते हैं— उग्रतप करने वालों में तामसिक वृत्ति आ जाती है, इसलिए क्रोध आना स्वाभाविक है । परन्तु यह निरी भ्रान्ति है । उग्रतप के साथ क्रोध और अहंकार आदि का कोई गठबन्धन नहीं है, उलटे क्रोध करने से असंख्य वर्षों की तपस्या मिट्टी में मिल जाती है; तपस्या का वास्तविक सुफल समाप्त हो जाता है । उग्रतप के साथ जब क्रोधादि दूषण आ जाते हैं, तो तप का उद्देश्य ही समाप्त हो जाता है । तप का वास्तविक उद्देश्य सिद्धियाँ या लब्धियाँ प्राप्त करना नहीं है, किन्तु कषाय एवं विषय-वासनाओं, राग-द्वेष-मोह आदि के कारण बँधे हुए शुभाशुभ कर्मों का क्षय करना है, उन्हें मिटाकर आत्मा को शुद्ध करना है, आत्मा का अपना असली स्वरूप प्रगट करना है, वीतरागता की प्राप्ति करना है। साथ जब क्रोध, अहंकार, द्वेष, मोह, ईर्ष्या आदि असहिष्णुता के लेकिन उग्रतप के भाव आ जाते हैं, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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