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________________ उग्रतप की शोभा : क्षान्ति-२ १७१ सहनशीलता, धीरता, क्षमा, नम्रता आदि सद्गुण नष्ट हो जाते हैं, तब उग्रतप का जो उद्देश्य था, वह पूर्ण होना तो दूर रहा, उलटे रागद्वेष कषाय आदि के कारण नाना प्रकार के अशुभ कर्मों का और बन्ध हो जाता है । अर्थात् — उग्रतप से कर्म नष्ट होने के बजाय, और नये कर्म बँध जाते हैं, जिनका कटुफल भोगना पड़ता है। पुराने कर्म तो ज्यों के त्यों पड़े रहें, तथा नये कर्मों के बन्ध का संचय होता रहे, उससे बढ़कर घाटे का सौदा क्या हो सकता है ? उग्रतप करने वाला जितना पुरुषार्थ तप करने में करता है, उससे थोड़ा-सा और पुरुषार्थ तप के साथ क्रोधादि दूषणों के प्रविष्ट न होने की सावधानी में करे तो वह उग्रतप खरे सोने की तरह चमकने लगता है । पर ऐसा करे कौन ? वही कर सकता है, जिसकी आत्मा में खटका हो, बाकी बहुत से नामधारी उग्रतपस्वी तो क्रोध के पुज और अभिमान के पुतले ही बने नजर आते हैं । क्यों ? इसके लिए आइए कारणों की छानबीन में उतरें उग्रतप के साथ क्रोध और अहंकार आदि का मूल कारण है – अहंकार पर चोट । जब कोई उग्रतपस्वी को कुछ कह देता है, या उसकी गलती की ओर ध्यान खींचता है, तो वह अपनी गलती स्वीकार करने या सुधारने के बदले अहंकार पर चोट पड़ने के कारण क्रोध से आग-बबूला हो जाता है । और जब क्रोध आता है तो साधारण नहीं, उग्र आता है, वह अपने दल-बल के साथ आता है । क्रोध के साथी हैं - द्वेष, घृणा, वैर- विरोध, कलह, ईर्ष्या, बात-बात में झल्लाना, झुंझलाना, मारपीट, प्रहार, भर्त्सना, गाली, निन्दा-चुगली, अपशब्द, शाप, आक्रोश, डांट फटकार, नीचा दिखाने की वृत्ति आदि । ये सब असहिष्णु स्वभाव के लक्षण हैं । उग्रतपस्वी जब किसी की बात को सहन नहीं कर पाता, तब अपने आपे से बाहर हो जाता है, उसे भान ही नहीं रहता है कि मैं किससे, क्या और क्यों कह रहा हूँ ? इसका क्या परिणाम आएगा । वह इस प्रकार क्रोबादि आवेश में क्षान्ति को विदा कर देता है और अशान्ति को उसके आसन पर बिठा देता है । उग्रतप के साथ अहंकार और तज्जनित क्रोधादि का एक कारण यह भी है कि उग्रतप से मनुष्य को कुछ भौतिक सिद्धियाँ या लब्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं, कुछ विशिष्ट भौतिक शक्तियाँ भी । वह उन सिद्धियों आदि के मद में स्वयं को भूलकर जरा-सा किसी के द्वारा प्रतिकूल वचन कहते, प्रतिकूल व्यवहार करते या अपमान करते ही सर्प की तरह क्रुद्ध होकर शाप दे देता है, अथवा द्व ेष, ईर्ष्या आदि के आवेश में आकर उसका सर्वनाश करने पर उतारू हो जाता है । उग्रतपस्वी को ये सिद्धियाँ मिली तो थीं, पुण्य के फलस्वरूप, पर वह उनका उपयोग पापकार्यों में करके अपने उग्र तप को मिट्टी में मिला देता है । सिद्धिप्राप्त उग्रतपा को शाप बरसाते या सर्वनाश करते समय जरा भी विचार नहीं आता, वह सिद्धियों के नशे में चूर रहता है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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