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________________ उग्रतप की शोभा : शान्ति–२ १६६ तप क्षणभर में नष्ट हो जाता है। उग्रतप के साथ क्रोध करना घाटे का सौदा है, अहंकार भी कीर्तिनाशक है । विष्णुपुराण में ठीक हो कहा है संचितस्यापि महतो वत्स ! क्लेशेन मानवैः । यशसस्तपसश्चैव क्रोधो नाशकरः परः। "वत्स ! क्रोध वर्षों से बड़ी कठिनता से संचित यश और तप का नाश कर देता है।" क्रोध और अहंकार तथा असहिष्णुता आदि दुर्गुणों से युक्त उग्र तपस्वी अपनी थोड़ी-सी असावधानी से सारी जिंदगी भर की उग्रतप की कमाई को खो देता है । वह उग्रतप से जो भी शक्ति अर्जित करता है, वह अहंकार, क्रोध आदि के कारण अशुद्ध बन जाती है, आध्यात्मिक शक्ति नहीं रहती, भौतिक शक्ति हो जाती है, वह भी विनाशकारी। महर्षि कण्व के आश्रम से कौशिकसुता शकुन्तला के प्रणय में मग्न महाराज दुष्यन्त विदा हो रहे थे । आश्रमवासी उन्हें दूर तक विदा करके वापस लौट रहे थे, किन्तु शकुन्तला अपने हृदयेश्वर को एक सघन लता की ओट में खड़ी अपलक निहार रही थी। तभी महर्षि दुर्वासा उधर से निकले, शकुन्तला को कुछ पता न चला, इस लिए वह उन्हें प्रणाम न कर सकी। बस, तपस्वी दुर्वासा के क्रोध का ठिकाना न रहा। उन्होंने झल्लाकर कहा-"कामात नारी ! जिसकी स्मृति में तू इस तरह आत्मविस्मृत हो रही है, जा, मेरा शाप है कि वह तुझे भूल जायेगा, पास जाने पर भी वह तुझे पहचानने से इन्कार कर देगा।" अब शकुन्तला को अपनी भूल का पता चला। उसने क्षमा भी मांगी, परन्तु तपस्वी दुर्वासा तिरस्कारपूर्ण दृष्टि डालते हुए आगे बढ़ गये । और सचमुच ही एक दिन विरहिणी शकुन्तला जब महाराज दुष्यन्त के सम्मुख उपस्थित हुई तो उन्होंने पूर्व परिचित होने तक से इन्कार कर दिया। बेचारी शकुन्तला को असीम कष्ट झेलने पड़े। दुर्वासा उग्रतपस्वी थे। उग्रतप के कारण उन्हें कुछ भौतिक शक्तियाँ उपलब्ध हो गईं। उन शक्तियों के स्वामी बनने का इतना अधिक अहंकार बढ़ गया कि वे चाहे जिसको शाप दे बैठते। अहंकार ज्यों-ज्यों विजयी होता है, त्यों-त्यों वह दुर्धर्ष और अविवेकी होता जाता है। अहंकार और क्रोध उग्रतप की साधना में सबसे अधिक बाधक है, इस बात को मदान्ध दुर्वासा भूल गये । उनका अहंकार और क्रोध, दोनों घटे नहीं, बढ़ते ही गये। एक दिन सरयूतट पर उनकी भेंट महाभाग सम्राट् अम्बरीष से हो गई। महाराज एकादशी का पारणा करने को तैयार हो रहे थे । नदीतट से जाने की तैयारी थी, तभी दुर्वासा आ पहुँचे। उन्होंने अम्बरीष नप को रोकते हुए कहा-“राजन् ! Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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